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अध्याय ३ वर्णों के कर्तव्य, अयोग्यताएँ एवं विशेषाधिकार धर्मशास्त्र-साहित्य में वर्गों के कर्तव्यों एवं विशेषाधिकारों के विषय में विशिष्ट वर्णन मिलता है। वेदाध्ययन करना, यज्ञ करना एवं दान देना ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य के लिए आवश्यक कर्तव्य माने गये हैं। वेदाध्यापन, यज्ञ कराना, दान लेना ब्राह्मणों के विशेषाधिकार हैं । युद्ध करना एवं प्रजा-जन की रक्षा करना क्षत्रियों के तथा कृषि, पशु-पालन, व्यापार आदि वैश्यों के विशेषाधिकार है।' प्रथम तीन कर्तव्यः अर्थात् अध्ययन करना, यज्ञ करना, दान देना द्विज मात्र के धर्म (कर्तव्य या कर्म) हैं, किन्तु वेदाध्यापन केवल ब्राह्मण की ही वृत्ति (जीविका) मानी गयी है।
वेदाध्ययन--आरम्भिक वैदिक कालों में भी ब्राह्मण एवं विद्या में अभेद्य सम्बन्ध था। ब्रह्मविद्या में ब्राह्मणों ने विशिष्ट गति प्राप्त की थी। कुछ राजाओं ने भी इस विद्या में इतनी महत्ता प्राप्त कर ली थी कि ब्राह्मण लोग उनसे ज्ञान ग्रहण करते थे। शतपथ ब्राह्मण एवं उपनिषदों में कुछ ब्रह्मविद् क्षत्रियों के नाम आते हैं जिनके यहाँ ब्राह्मण लोग शिष्य रूप में उपस्थित होते थे। यथा याज्ञवल्क्य ने राजा जनक से (शतपथ ब्राह्मण ६।२१।५), बालाकि गार्ग्य ने काशिराज अजातशत्रु से (बृहदारण्यक २१ एवं कौषीतकी उपनिषद् ४'), श्वेतकेतु आरणेय ने प्रवाहण जैवलि से (छान्दोग्योपनिषद् ५।३), पंच ब्राह्मणों ने केकयराज अश्वपति से (छा० ५।२) ज्ञान प्राप्त किया। इससे यह स्पष्ट है कि क्षत्रियों ने ब्रह्मविद्या में इतनी विशेष योग्यता प्राप्त कर ली थी कि ब्राह्मण लोग भी उनके यहाँ पहुँचते थे। इससे यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि क्षत्रिय लोग ब्रह्मविद्या के प्रतिष्ट कि प्रसिद्ध विद्वान् एवं भारतीयता-तत्त्वविद् श्री ड्यूसेन महोदय ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'डास सिस्टेम डेस वेदान्त' (सन् १८८३ , पृष्ठ १८-१९) में लिखा था। यह धारणा अब निर्मूल सिद्ध की जा चुकी है। उपनिषदों के दर्शन का बीजारोपण ऋग्वेद के मन्त्रों, अथर्ववेद एवं कुछ ब्राह्मण ग्रन्थों में हो चुका था। उपनिषदों में ऐसे ब्राह्मणों की बहुलता है जिन्होंने स्वतन्त्र रूप से ब्रह्मविद्या के विभिन्न स्वरूपों पर प्रकाश डाला है। ऐसा कहने के लिए कोई कारण नहीं है कि जिन कतिपय क्षत्रियों के नाम ब्रह्मविद् के रूप में हमारे सामने आते हैं, केवल वे ही ब्रह्मविद् थे, ब्राह्मण नहीं। प्राचीन ग्रन्थों में कहीं भी किसी वैश्य के विषय में वेदाध्ययन का संकेत नहीं मिलता, यद्यपि उनके लिए भी वेदाध्ययन करना आवश्यक था।
निरुक्त (२।४) में विद्यासूक्त नामक चार मन्त्र हैं, जिनमें प्रथम के अनुसार विद्या ब्राह्मणों के पास
१. द्विजातीनामध्ययनमिज्या दानम् । ब्राह्मणस्याधिकाः प्रवचनयाजनप्रतिग्रहाः । पूर्वषु नियमस्तु। राज्ञोऽधिकं रक्षणं सर्वभूतानाम् । वैश्यस्याधिकं कृषिणिक्पाशुपाल्यकुसीदम् । गौतम० १०११-३, ७, ५०; और देखिए आपस्तम्ब २१५, १०५-८, बौधायन १।१०।२-५; वसिष्ठ २०१३-१९; मनु १५८८-९०, १०७५-७६; याज्ञवल्क्य ११११८-११९; विष्णु २०१०-१५; अत्रि १३-१५; मार्कण्डेयपुराण २८॥३-८ ।
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