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धर्मशास्त्र का इतिहास
कतिपय व्यवसायों पर आधारित हैं। अति प्राचीन काल में ब्राह्मण लोग कई प्रकार के व्यवसाय करते पाये जाते हैं। ऐसे ब्राह्मणों की सूची, जो अपने स्वाभाविक व्यवसाय को छोड़कर अन्य व्यवसाय करते थे, बहुत लम्बी है (मनु ३|१५१ ) । इस विषय में पंक्तिपावन सम्बन्धी विवेचन भी आगे किया जायगा ।
अति प्राचीन काल से ही ब्राह्मणों में कुछ ऐसे लोग पाये जाते हैं, जो अध्ययनाध्यापन से दूर कोई अन्य व्यवसाय करते थे, किन्तु वे ब्राह्मण कहे जाते रहे हैं । महाभाष्य में तप, वेदाध्ययन एवं जन्म नामक तीन कारणों का उल्लेख है, जो किसी भी ब्राह्मण के लिए आवश्यक ठहराये गये हैं । " महाभारत में यह कई बार आया है कि ब्राह्मण जन्म से ही पूज्य है, " किन्तु कई स्थलों पर जन्म पर आधारित जाति की भर्त्सना भी की गयी है।* उद्योगपर्व ( ४३।२० एवं ४९ ), शान्तिपर्व ( १८८ १० १८९०४ एवं ८), वनपर्व ( २१६।१४-१५ ३१३।१०८-१११), याज्ञवल्क्य ( ११२००), वृद्ध गौतम आदि में नैतिकता, चरित्र आदि दिव्य गुणों वाले व्यक्तियों की ही प्रशंसा की गयी है। कर्म से ही कोई उच्च होता है, न कि जन्म से । गौतम ने आत्मा के आठ गुणों को परम गौरव दिया है (दया सर्वभूतेषु शान्तिरनसूया शौचमनायासो मंगलमकार्पण्यंमस्पृहेति ), तथापि जन्म पर आधारित जाति-व्यवस्था सभी युगों में बलवती बनी रही और कतिपय आचार्यों ने जाति एवं चरित्र में जाति को ही महत्ता दी ।"
मध्य काल के जातिविवेक एवं शुद्रकमलाकर ( १७वीं शताब्दी) नामक ग्रन्थों में कुछ और जातियों का वर्णन है, जिनमें कुछ निम्न हैं
आघासिक या आन्धसिक - - वैदेहक पुरुष एवं शूद्र नारी की सन्तान; पका हुआ भोजन बेचनेवाला । इसे रान्धवणु भी कहा जाता है।
आवर्तक - मृज्जकण्ठ पुरुष एवं ब्राह्मण नारी से उत्पन्न ।
४०. तपः श्रुतं च योनिश्च एतद् ब्राह्मणकारकम् । । तपः श्रुताभ्यां यो होनो जातिब्राह्मण एव सः ॥ पाणिनि के २६ पर महाभाष्य | महाभारत के अनुशासनपर्व ( १२१।७) में भी ऐसा ही आया है-- तपः.....ब्राह्मप्यकारणम् । त्रिभिर्गुणैः समुदितो ततो भवति वै द्विजः । महाभाष्य में एक अन्य चर्चा भी है - त्रीणि यस्थावदातानि विद्या योनिश्च कर्म च । एतच्छिवं विजानीहि ब्राह्मणाप्रचस्य लक्षणम् ॥ ॥ ( जिल्द २, पृ० २२० )
४१. जन्मनैव महाभागे ब्राह्मणो नाम जायते । नमस्यः सर्वभूतानामतिथिः प्रसृताप्रभुक् ॥ अनुशासनपर्व ३५।१; देखिए, वही १४३ । ६ ।
४२. सत्यं दमस्तपो दानमहिंसा धर्मनित्यता । साधकानि सदा पुंसां न जातिनं कुलं नृप । वनपर्व १८१ ।
४२-४३ ।
४३. सत्यं दानमथाद्रोह आनृशंस्यं त्रपा घृणा । तपश्च दृश्यते यत्र स ब्राह्मण इति स्मृतः ॥ शूद्रे चैतद् भवेल्लक्ष्म द्विजे तच्च न विद्यते । न वं शूद्रो भवेच्छूद्रो ब्राह्मणो न च ब्राह्मणः ॥ शान्तिपर्व १८९।४ एवं ८; और देखिए वनपर्व १८०।२१। न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदं जगत् । ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ॥ शान्ति० १८८, १० । तस्मात्क्षत्रिय मा संस्था जल्पितेनैव वै द्विजम्। य एव सत्यान्नापैति स ज्ञेयो ब्राह्मणस्त्वया ॥ उद्योगपर्व ४३।४९; यस्तु शूद्रो दमे सत्ये धर्मे च सततोत्थितः । तं ब्राह्मणमहं मन्ये वृत्तेन हि भवेद् द्विजः ॥ वनपर्व २१६।१४-१५; न जाति: पूज्यते राजन् गुणाः कल्याणकारकाः । चण्डालमपि वृत्तस्थं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ वृद्धगौतम ।
४४. देखिए, पराशरमाधवीय; जातिशीलयोर्मध्ये जात्युत्कर्ष एव प्राधान्येनोपादेयः । शीलं तु यथासम्भवम् ।
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