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धर्मशास्त्र का इतिहास
शूलिक-उशना (४२) ने इसे ब्राह्मण पुरुष एवं शूद्र नारी की अवैध सन्तान कहा है और दण्डित लोगों को शूली देनेवाला घोषित किया है। वैखानस (१०।१३) एवं सूतसंहिता ने इसे क्षत्रिय पुरुष एवं शूद्र नारी के गुप्त प्रेम का प्रतिफल माना है।
शंख--मनु (१०।२१) के अनुसार यह आवन्त्य ही है।
शैलुष--विष्णुधर्मसूत्र (५१।१३), मनु (४।२१४), हारीत आदि ने इसे रंगावतारी से भिन्न एवं ब्रह्मपुराण ने इसे नटों के लिए जीविका खोजनेवाला कहा है। आपस्तम्ब (९।३८) ने इसे रजक एवं व्याध की श्रेणी में रखा है। यही बात याज्ञवल्क्य (२०४८) में भी पायी जाती है।
शौण्डिक (सुरा बेचनेवाला)--विष्णु (५१।१५), मनु (४।२१६), याज्ञ० (२।४८), शंख, ब्रह्मपुराण ने इसका उल्लेख किया है।
श्वपच या श्वपाक-व्यास (१११२-१३) ने इसे अन्त्यजों में परिगणित किया है। पाणिनि (४।३।११८) के 'कुलालादि' में यह आया है। यह उग्र पुरुष एवं क्षत्ता उपजाति की नारी की सन्तान है (बौधायन १।९।१२, कौटिल्य ३७)। मनु ने इसे क्षत्ता पुरुष एवं उग्र नारी से उत्पन्न माना है। उशना (११) ने इसे चाण्डाल पुरुष एवं वैश्य नारी की सन्तान कहा है। मनु (१०।५१-५६) के अनुसार चाण्डाल एवं श्वपच एक ही व्यवसाय करते हैं (देखिए, 'चाण्डाल')। ये लोग कुत्ते का मांस खाते हैं और कुत्ते ही इनका धन है (उगना १२) । ये नगरों की सफाई करते हैं और श्मशान में रहते हैं (मनु० १०५५)। ये नातेदारों से रहित मृतकों को ढोते हैं, जल्लाद का काम करते हैं, आदि-आदि। भगवद्गीता (५।१८) में ये लोग कुत्तों की श्रेणी में रखे गये हैं। मार्कण्डेयपुराण में ये चाण्डाल भी कहे गये हैं, अर्थात् इनमें और चाण्डालों में कोई अन्तर नहीं है। जातिविवेक में ये दक्षिण के महार एवं मंग के समान माने गये हैं।
सात्वत--मनु (१०।२३) ने इसे कारुष ही माना है। सुधन्वाचार्य--मनु (१०।२३) ने इसे कारुष ही माना है।।
सुवर्ण--उशना (२४-२५) के अनुसार यह ब्राह्मण पुरुप एवं क्षत्रिय नारी के वैध विवाह की सन्तान है। सम्भवतः यहाँ लिखने में त्रुटि हो गयी है और 'सुवर्ण' का 'सवर्ण' होना चाहिए। उसे अथर्ववेद के अनुसार कर्म-संस्कार करना चाहिए, राजा की आज्ञा से घोड़े, हाथी या रथ की सवारी करनी चाहिए। वह सेनापति या वैद्य का काम कर सकता है।
सुवर्णकार या सौणिक या हेमकार (सोनार)--वाजसनेयी संहिता (३०७) एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण (३।४।१४) में हिरण्यकार का उल्लेख हुआ है। विष्णुधर्मसूत्र (१०।४) एवं नारद (ऋणादान, २७४) के अनुसार सोनार तौल नामक दिव्य में तोला करता था। सुमन्तु, शंख आदि ने इसे कर्मकार एवं निषाद की श्रेणी में गिना है। मनु (९।२९२) ने इसे दुष्टों में दुष्ट कहा है (सर्वकण्टकपापिष्ठ)। महाभारत में ऐसा आया है कि परशुराम की क्रोधाग्नि से बचकर कुछ लोगों ने क्षत्रियों, लोहारों एवं सोनारों का काम करना आरम्भ कर दिया।"
सूचक--यह वैश्य पुरुष एवं शूद्र नारी की अनुलोम सन्तान है (उशना ४३) ।
३९. धोकारहेमकारादिजाति नित्यं समाश्रिताः। शान्तिपर्व ४९।८४। यहाँ 'धोकार' सम्भवतः 'ज्योकार' (लोहार) है। कहीं-कहीं 'योकार' के स्थान पर 'ज्याकार' (प्रत्यञ्चा बनानेवाला) पाया जाता है।
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