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________________ वर्ण एवं स्मृतियों में वर्णित विभिन्न जातियां मत्स्यबन्धक (मछुआ)-- -उशना (४४) के अनुसार यह तक्षक (बढ़ई), एवं क्षत्रिय नारी की सन्तान है। मल्ल--मनु (१७॥२२) ने इसे झल्ल का पर्यायवाची माना है। मागध-यह वैश्य पुरुष एवं क्षत्रिय नारी की प्रतिलोम सन्तान है (गौतम ४११५, अनुशासन० ४८।१२, कोटिल्य ३।७, मनु १०।११, १७, याज्ञवल्क्य ११९३)। किन्तु कुछ लोगों ने इसे वैश्य पुरुष एवं ब्राह्मणी की सन्तान माना है (गौतम ४।१६, उशना ७, वैखानस १०।१३ में वर्णित आचार्यों का मत)। बौधायन (१।९।७), ने इसे शूद्र पुरुष एवं क्षत्रिय नारी की सन्तान माना है। मनु (१०।४७) ने इसे स्थल-मार्ग का व्यापारी, अनुशासन पर्व (१०४८) ने रतुति करनेवाला या बन्दी माना है। सह्याद्रिखण्ड (२६-६०।६२) ने भी इसे अलंकारयुक्त छन्द कहनेवाला बन्दी (बन्दिन्) माना है। वैखानस (१०।१३) ने इसे शूद्र कहा है। उशना (७-८) है इसे ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों का स्तुतिकर्ता माना है। पाणिनि (४११७०) ने इसे मगध देश का वासी कहा है, किन्तु जाति के अर्थ में नहीं। माणविक--मूतसंहिता के अनुसार यह शूद्र पुरुष एवं शूद्र नारी के गुप्त प्रेम का प्रतिफल है। मातंग-चाण्डाल के समान। कादम्बरी और अमरकोश में मातंग एवं चाण्डाल एक-दसरे के कहे गये हैं। यम (१२) ने भी इसे चाण्डाल के अर्थ में ही प्रयुक्त किया है। बम्बई एवं उड़ीसा में क्रम से मांग एवं मंग नामक अछूत जातियां पायी जाती हैं। मार्गव:-यह कैवर्त (केवट) के समान ही है। देखिए मनु (१०॥३४) । मालाकार या मालिक (माली)-मालाकार व्यासस्मृति (१११०-११) में आया है। यह आज की माली जाति का द्योतक है। माहिष्य--गौतम (४।१७) एवं याज्ञवल्क्य (१९९२) में उल्लिखित आचार्यों के अनुसार यह क्षत्रिय पुरुष एवं वैश्य नारी के अनुलोम विवाह से उत्पन्न सन्तान है। सह्याद्रिखण्ड (२६।४५-४६) के अनुसार यह उपनयन संस्कार का अधिकारी है आर इसके ब्यवसाय हैं फलित ज्योतिष, भविष्यवाणी करना एवं आगम वताना। सूतसंहिता ने इसे अम्बष्ठ ही कहा है। ___ मूर्धावसिक्त--गौतम (४।१७) एवं याज्ञवल्क्य (२९१) में उल्लिखित आचार्यों के अनुसार यह ब्राह्मण पुरुष एवं क्षत्रिय नारी से उत्पन्न अनुलोम जाति है। वैखानस (१०।१२) ने ब्राह्मण पुरुष एवं क्षत्रिय नारी की वैध सन्तान को सर्वोत्तम अनुलोम माना है और उनके गुप्त प्रेम से उत्पन्न अर्थात् अवैध सन्तान को अभिषिक्त माना है। यदि राज्याभिषेक हो जाय तो वह राजा हो सकता है, नहीं तो आयुर्वेद, भूत-प्रेत-विद्या, ज्योतिष. गणित आदि से अपनी जीविका चलाता है। तृतप--पाणिनि के महाभाष्य (२।४।१०) में यह शूद्र कहा गया है, जिसका जूठा बरतन अग्नि से भी पवित्र नहीं किया जा सकता। यह चाण्डालों से भिन्न जाति का माना गया है। मेद-यह सात अन्त्यजों में एक है (देखिए ऊपर 'अन्त्यज')। अत्रि (१९९) ने लिखा है-'रजकश्चर्मकारश्च नटो बुरुड एव च। कैवर्तमेदभिल्लाश्च सप्तैते चान्त्यजाः स्मृताः ॥' (देखिए, यम ३३१) कहीं-कहीं 'मेद' के स्थान पर 'म्लेच्छ' शब्द प्रयुक्त हो गया है । मेद का नाम नारद (वाक्पारुष्य, ११) में भी आया है । अनुशासन० (२२।२२) ने मेदों, पुल्कसों एवं अन्तावसायियों के नाम लिये हैं। टीकाकार नीलकण्ठ ने मेदों को मृत पशुओं के मांस-भक्षक कहा है।" ___ ३७. मेवानां पुल्कसानां च तथैवान्तेवसायिनाम् (...वान्तावसायिनाम् ?) । अनुशासन० २२।२२; मृतानां गोमहिष्यादीनां मांसमश्मन्तोः मेवाः। नीलकण्ठ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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