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धर्मशास्त्र का इतिहास
कर्मार - वैदिक साहित्य ( तैत्तिरीय ब्राह्मण ३।४१ ) में भी यह शब्द आया है। पाणिनि ने 'कुलालाबि' गण ( ४ | ३ | ११८ ) में इस जाति का उल्लेख किया है । मनु (४।२१५ ) में भी यह नाम आया है। बंगाल में कमर ( लोहार) जाति परिगणित जाति है ।
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कांस्यकार - यह जाति (मराठी में आज का कांसार एवं उत्तरी भारत का कसेरा) तुला-दिव्य के सिलसिले में विष्णुधर्मसूत्र ( १०१४) द्वारा एवं नारद (ऋणादान, २७४) द्वारा वर्णित है ।
काकवच -- घोड़ों को घास लानेवाली जाति ( उशना ५० ) ।
काम्बोज - - देखिए मनु ( १०१४३-४४ ) । कम्बोज देश यास्क (निरुक्त २।२) एवं पाणिनि (४।१।१७५ ) को ज्ञात है । उद्योगपर्व ( १६०।१०३), द्रोणपर्व ( १२१।१३ ) ने शकों के साथ काम्बोजों का वर्णन किया है। देखिए यवन भी ।
कायस्थ --- माध्यमिक एवं आधुनिक काल में कायस्थों के उद्गम एवं उनकी सामाजिक स्थिति के विषय में बड़ेबड़े उग्र वाद-विवाद हुए हैं और भारतीय न्यायालयों के निर्णयों द्वारा भी कटुताएँ प्रदर्शित हुई हैं। कलकत्ता हाईकोर्ट ने ( भोलानाथ बनाम सम्राट् के मुकदमे में ) बंगाल के कायस्थों को शूद्र सिद्ध किया और यहाँ तक लिख दिया कि वे डोम स्त्री से भी विवाह कर सकते हैं। किन्तु प्रिवी कौंसिल ने ( असितमोहन बनाम नीरदमोहन के मुकदमे में ) इस बात को निरस्त कर दिया। दूसरी ओर इलाहाबाद एवं पटना के हाईकोर्टो ने क्रम से तुलसीदास बनाम बिहारी लाल एवं ईश्वरीप्रसाद बनाम राय हरिप्रसाद के मुकदमों में कायस्थों को द्विज बताया। गौतम, आपस्तम्ब, बौधायन, वसिष्ठ के धर्म सूत्रों एवं मनुस्मृति में 'कायस्थ' शब्द नहीं आता। विष्णुधर्मसूत्र (७३) ने एक राजसाविक को कायस्थ द्वारा लिखित कहा है। इससे इतना ही स्पष्ट होता है कि कायस्थ राज्यकर्मचारी था। यामवलय (१।३२२ ) ने राजा को उद्बोधित किया है कि वह प्रजा को चाटों (दुष्ट लोग), चोरों, दुश्चरित्रों, आततायियों आदि से, विशेषतः कायस्थों से बचाये। मिताक्षरा ने लिखा है कि कायस्थ लोग हिसाब-किताब करनेवाले ( गणक), लिपिक, राजाओं के स्नेहपात्र एवं बड़े धूर्त होते हैं । उशना (३५) ने कायस्थों को एक जाति माना है और इसके नाम की एक विचित्र व्युत्पत्ति उपस्थित की है, यथा काक (कौआ) के 'का' यम के 'य' एवं स्थपति के 'स्थ' शब्दों से 'कायस्थ' बना है; 'काक', 'यम' एवं ' स्थपति' शब्द क्रम से लालच (लोभ), क्रूरता एवं लूट के परिचायक हैं। " ब्यासस्मृति (१।१०-११ ) में कायस्थ बेचारे नाइयों, कुम्हारों आदि शूद्रों के साथ परिगणित हुए हैं। सुमन्तु ने लेखक (कायस्थ ) का भोजन तेलियों आदि के समान माना है और ब्राह्मणों के लिए अयोग्य समझा है। बृहस्पति ने (स्मृतिपत्रिका के व्यवहार में उद्धृत) गणक एवं लेखक को दो व्यक्तियों के रूप में माना है और उन्हें द्विज कहा है। 'लेखक' कायस्थ जाति का द्योतक है कि नहीं, यह नहीं प्रकट हो पाता । मृच्छकटिक (नवाँ अंक) में श्रेष्ठी एवं कायस्थ न्यानामीश से समन्वित रखे गये हैं। लगता है, बृहस्पति का 'लेखक' शब्द कायस्थ का ही द्योतक है। ईसा की आरम्भिक शताब्दियों में कायस्थ शब्द राजकर्मचारी अर्थ में ही प्रयुक्त होता रहा है। किन्तु देश के कुछ भागों में, जैसा कि उशना एवं व्यास के कथन से व्यक्त है, कायस्थों की एक विशिष्ट जाति भी थी ।
कारावर -- मनु (१०/३६) के अनुसार यह जाति निषाद एवं वैदेही नारी से उत्पन्न हुई है और इसकी वृति है चर्मकारों का व्यवसाय । शूद्रकमलाकर के अनुसार कारावर 'कहार' या 'भोई' कहा जाता है, जो मशाल पकड़ता है और दूसरों के लिए छत्र ( छाता या छतरी ) लेकर चलता है।
३०. राजाधिकरणे तन्नियुक्तकायस्थकृतं तदध्यक्षकरचिह्नितं राजसाक्षिकम् । विष्णुधर्मसूत्र ७|३| ३१. काकाल्लौल्यं यमात् क्रौर्य स्थपतेरथ कृन्तनम् । आद्यक्षराणि संगृह्य कायस्थ इति निर्विशेत् ॥ उशमा ३५ ।
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