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________________ वर्गः; अनुलोम एवं प्रतिलोम जातियां, बर्न एवं जाति का अन्तर ११९ है, किन्तु ब्राह्मण नारी एवं क्षत्रिय पुरुष के चोरिकाविवाह (प्रच्छन्न सम्मिलन) से उत्पन्न पुत्र 'रथकार' कहलाता है। स्पष्ट है, अनुलोम के अतिरिक्त प्रतिलोम विवाह भी विहित हो सकता था। उशना के अनुसार एक ब्राह्मण स्त्री क्षत्रिय पुरुष का विधिवत् वरण कर सकती थी और न्यायानुकूल दोनों के विवाह हो सकते थे। विधिवत् विवाह से उत्पन्न पुत्र एवं जारज पुत्र के अन्तर को सूतसंहिता (शिवमाहात्म्य खण्ड, अध्याय १२२१२-४८) ने स्पष्ट समझाया है। मिताक्षरा (याज्ञ० १।९०) ने कुण्ड, गोलक (मनु० ३।१७४), कानीन, सहोढज नामक जारज सन्तानों को सवर्ण, अनुलोम एवं प्रतिलोम से पृथक् माना है और उन्हें शूद्र कहा है, किन्तु क्षेत्रज को एक पृथक् श्रेणी में रखा है (क्योंकि नियोग-प्रया स्मृतियों एवं शिष्टाचारों द्वारा विहित मानी गयी है) और उसे माता की जाति में गिना है। अपरार्क (याज्ञ० १।९२) ने कानीन एवं सहोढ को भी ब्राह्मण (यदि जनक को ब्राह्मण सिद्ध किया जा सके तो) माना है; किन्तु विश्वरूप (याज्ञ० २११३३) ने कानीन एवं गूढज को माता की जाति का माना है, क्योंकि जनक का पता लगाना कठिन है। यही बात सहोढज के विषय में भी लागू है। इस प्रकार के गौण पुत्रों का उल्लेख हम आगे के दायभाग नामक प्रकरण में करेंगे। यहाँ हम, बहुत ही संक्षेप में, 'वर्ण' एवं 'जाति' शब्द के अन्तर को समझ लें। दोनों शब्दों का प्रयोग बहुधा समान अर्थ में होता रहा है। कभी-कभी दोनों के अर्थों में अन्तर भी पाया जाता रहा है। वर्ण की धारणा वंश, संस्कृति, चरित्र (स्वभाव) एवं व्यवसाय पर मूलतः आधारित है। इसमें व्यक्ति की नैतिक एवं वौद्धिक योग्यता का समावेश होता है और यह स्वाभाविक वगों की व्यवस्था का द्योतक है। स्मृतियों में भी वर्गों का आदर्श है कर्तव्यां पर, समाज या वर्ग क उच्च मापदण्ड पर बल देना; न कि जन्म से प्राप्त अधिकारों एवं विशेषाधिकारों पर बल देना। किन्तु इसके विपरीत जाति-व्यवस्था जन्म एवं आनुवंशिकता पर बल देती है और बिना कर्तव्यों के आचरणों पर बल दिये केवल विशेषाधिकारों पर ही आधारित है। वैदिक साहित्य में 'जाति' के आधुनिक अर्थ का प्रयोग नहीं हुआ है। निरुक्त में 'जाति' शब्द जाति के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है (१२।१३) । पाणिनि में भी इसके मूल रूप की व्याख्या है (जात्यन्ताच्छो बन्धुनि, ५।४।९) । मनु (१०।२७,३१) ने 'वर्ण शब्द को मिश्रित जातियों के अर्थ में भी प्रयुक्त किया है और कहीं-कहीं (३।१५; ८।१७७; ९।८६ आदि) इसका प्रयोग 'जाति' अर्थ में भी किया है। अनुलोम विवाहा से उत्पन्न सन्तानों की सामाजिक स्थिति के विषय में स्मृतिकारों के मतों में ऐक्य नहीं है। हम तीन मत प्राप्त होते हैं--(१) यदि एक पुरुष अपने से निम्न पास वाली जाति की स्त्री से विवाह करता है तो उसकी सन्तानों का वर्ण पिता का वर्ण माना जायगा (बौ० ध० सू० १८१६ एवं १।९।३; अनुशासनपर्व ४८६४; नारद; कौटिल्य ३।७)। गौतम (४।१५) ने कहा है कि एक ब्राह्मण पुरुष एवं क्षत्रिय नारी को संतान ब्राह्मण होगी, किन्तु ऐसी बात क्षत्रिय पुरुष एवं वैश्य स्त्री से उत्पन्न सन्तान के साथ तथा वैश्य की शूद्र स्त्री से उत्पन्न सन्तान के साथ नहीं पायी जाती। (२) दूसरे मत के अनुसार अनुलोम विवाह से उत्पन्न सन्तानों को सामाजिक स्थिति पिता से निम्नतर, किन्तु माता से उच्चतर होती है (मनु०१०।६)। (३) तीसरा मत सामान्य मत है ; 'अनुलोमास्तु मातृसवर्णाः' (विष्णु० १६०२), अर्थात् अनुलोम सन्तानों के कर्तव्य एवं अधिकार उनकी माता के समान होते हैं। यही नात शंख एवं अपरार्क ने भी कही है। मेधातिथि (मनु० १०१६) ने लिखा है कि पाण्डु, घृतराष्ट्र एवं विदुर क्षेत्रज होने के नाते माता की जाति के थे। प्रतिलोम सन्तानें, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, अपने पिता एवं माता की सामाजिक स्थिति से निम्न स्थिति वाली होती हैं। __ अति प्राचीन धर्मसूत्रों में बहुत कम वर्णसंकर जातियों का उल्लेख हुआ है। आपस्तम्बधर्मसूत्र में चाण्डाल, पौल्कस एवं वैण के नाम आये हैं। गौतम ने पांच अनुलोम जातियों तथा छः प्रतिलोम जातियों के नाम गिनाये हैं। बौधायन गौतम की सूची में रथकार, श्वपाक, वैण, कुक्कुट के नाम जोड़ देते हैं। वसिष्ठ तो बहुत कम नाम लेते हैं। सर्वप्रथम मनु (१०) एवं विष्णुधर्मसूत्र (१६) ने वर्णसंकर जातियों के व्यवसायों की चर्चा की है। मनु ने ६ अनुलोम, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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