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________________ ११८ धर्मशास्त्र का इतिहास प्राचीन धर्मशास्त्रकारों ने श्रुति-सम्मत चार वर्षों से उद्भूत शावा-प्रशाखाओं की उत्पत्ति के विषय में बहुत कुछ लिखा है। एक मत से सभी ने स्वीकार किया है कि देश में फैली हुई विभिन्न जातियाँ एक जाति के पुरुषों एवं दूसरी जाति की स्त्रियों के मेल से उत्पन्न हुई हैं। स्मृतियों में कतिपय जातियों एवं उपजातियों का वर्णन है। ये जातियाँ या उपजातियाँ कल्पनात्मक नहीं थीं, प्रत्युत उनके पीछे परम्पराओं एवं रूढियों का इतिहास था। देश के विभिन्न भागों में लिखे गये स्मृति-ग्रन्थ इस बात के साक्षी हैं कि समय-समय पर समाज में प्रचलित आचारों को धार्मिक एवं लोकसम्मत प्रतिष्ठा देना अनिवार्य सा हो गया था। सभी धर्मशास्त्रकार, (२) चारों वर्गों को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र के क्रम से रखते हैं। वे यह भी स्वीकार करते हैं कि (२) एक उच्च जाति का व्यक्ति अपने से निम्न जाति की स्त्री से विवाह कर सकता है, किन्तु कोई निम्न जाति का व्यक्ति अपने से उच्च जाति की स्त्री से विवाह नहीं कर सकता। (३) कुछ स्मृतिकारों ने एक तीसरी स्थापना भी प्रस्तुत की है ; यदि एक ही जाति वाले पिता एवं माता से कोई उत्पन्न हो तो वह संतति जन्म से ही उसी जाति की मानी जायगी। जब एक उच्च वर्ण या जाति का व्यक्ति अपने से निम्न जाति की स्त्री से विवाह करता है तो इसे ह कहा जाता है (लोम-केश के साथ स्वाभाविक क्रम से-अनलोम) और इससे उत्पन्न संतति को अनुलोम कहा जाता है। किन्तु जब किसी उच्च जाति की स्त्री का विवाह किसी निम्न जाति या वर्ण के पुरुष से होता है, तो इसे प्रतिलोम (लोम -- केश के विपरीत, स्वाभाविक अथवा उचित त्रम के विपरीत) विवाह कहा जाता है और इससे उत्पन्न संतति को प्रतिलोम संतति की संज्ञा मिलती है। वैदिक साहित्य में 'अनुलोम' एवं प्रतिलोम' शब्द विवाह के अर्थ में नहीं प्रयुक्त हुए हैं। बृहदारण्यकोपनिषद् (२।१।१५) एवं कौषीतकी ब्राह्मणोपनिषद् (४।१८) में ऐसा आया है कि यदि एक ब्राह्मण ब्रह्मज्ञान के लिए किसी क्षत्रिय के पास जाय तो यह 'प्रतिलोम' गति कही जायगी। सम्भवतः इसी अर्थ को कालान्तर में विवाह के लिए भी प्रयुक्त कर दिया गया। अब देखना यह है कि अनुलोम या प्रतिलोम नामक सम्बन्ध विवाह है या केवल सम्मिलन मात्र। आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।६।१३।१, ३-४) ने अनुलोम विवाह को भी अस्वीकृत किया है। उन्होंने अनुलोम एवं प्रतिलोम जातियों की चर्चा तक नहीं की है। किन्तु गौतम (११), वसिष्ठ (१।२४), मनु (३।१२-१३) एवं याज्ञवल्क्य (१।५५ एवं ५७) ने स्वजाति-विवाह को उचित कहा है, किन्तु अनुलोम विवाह को वजित नहीं माना है। याज्ञवल्क्य (१।९२) ने स्पष्ट शब्दों में छः अनुलोम जातियों के नाम गिनाये हैं, यथा मूर्धावसिक्त, अम्बष्ठ, निषाद, माहिष्य, उग्र एवं करण। ये जातियाँ उच्च वर्ण के पुरुषों एवं उनसे निम्न वर्ण की स्त्रियों की सन्ततियों से उत्पन्न हुई हैं। मनु (१०।४१) ने लिखा है कि छ: अनुलोम जातियाँ द्विजों के सारे क्रिया-संस्कारों को कर सकती हैं. किन्तु प्रतिलोम जातियाँ शूद्र के समान हैं, वे द्विजों के संस्कार आदि नहीं कर सकतीं, चाहे वे ब्राह्मण स्त्री एवं क्षत्रिय पति या वैश्य पति से ही क्यों न उद्भूत हुई हों। कौटिल्य (३।७) ने लिखा है कि चाण्डालों को छोड़कर सभी प्रतिलोम शूद्रवत् हैं। विष्णु (१६१३) ने इन्हें आर्यो द्वारा गर्हित माना है (प्रतिलोमास्त्वार्यविहिताः)। पराशरमाधवीय द्वारा उद्धृत देवल का कहना है कि प्रतिलोम वर्णो से पृथक् एवं पतित हैं। स्मृत्यर्थसार के अनुसार अनुलोम पुत्र एवं मूर्धावसिक्त तथा अन्य अनुलोम जातियाँ द्विजातियाँ हैं और द्विजों के सारे संस्कार कर सकती हैं। कुल्लूक-ऐसे भाष्यकारों ने "तिलोमों की भर्त्सना की है। गौतम (४।२०) ने प्रतिलोमों को धर्महीन कहा है। इस कथन का अर्थ मिताक्षरा (याज्ञ० ३।२६२) में इस प्रकार है--प्रतिलोम लोग उपनयन आदि संस्कार नहीं कर सकते. हाँ वे व्रत प्रायश्चित्त आदि कर सकते हैं। वसिष्ठ. बौधायन तथा के मत स्पष्ट नहीं हैं, जब वे प्रतिलोमों की चर्चा करते हैं तो यह नहीं विदित हो पाता कि ये सन्ततियाँ विहित विवाह की फलस्वरूप हैं या विधिविरुद्ध हैं या जारज (व्यभिचार की फलस्वरूप) हैं। किन्तु इस विषय में उशना एवं वैग्वानस स्पष्ट हैं । उशना (५।२-५) के अनुसार ब्राह्मण-स्त्री एवं क्षत्रिय-पुरुष के वैवाहिक संबंध से उत्पन्न पुत्र 'सूत' कहा जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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