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वः विभिन्न जातियों
११७
मार्गार
या
उग्र
पुंश्चलु
अयोगू या आयोगू
ज्याकार
मागध
तक्षा अविपाल (गड़रिया)
दाश
मूतिब आन्द (?)
धनुष्कार
मृगयु
मैनाल इषुकार
धन्वाकार
राजयित्री (रंगरेज)
रज्जुसर्ग या सर्ज धन्वकृत्
रथकार कण्टककार या कण्टकीकारी
धैवर
राजपुत्र (वाजसनेयी संहिता में)
रेभ ((?) कर्मार
निषाद
वंशनर्ती या
वप (नाई) कारि (नर्तक)
नषाद
वाणिज
वासःपल्पूलि (धोबी) कितव
विदलकारी या विदल
व्रात्य किरात
पुजिष्ठ
शबर कीनाश (खेतिहर)
शाबल्य (?)
शैलष कुलाल या कौलाल
पुलिन्द
स्वनी (श्वनित) केवर्त
पौल्कस
संगृहीता कोशकारी (माथी फंकनेवाला) वैन्द (मछली पकड़ने वाला) सुराकार क्षत्ता
सूत
सेलग गोपाल (गुवाला)
भिषक
हिरण्यकार धर्मसूत्रों, प्राचीन बौद्ध ग्रन्थों एवं मेगस्थनीज के अपूर्ण उद्धरणों से पता चलता है कि ईसा के कई शताब्दी पूर्व कतिपय जातियाँ विद्यमान थीं । मेगस्थनीज का वृत्तान्त भ्रान्तिपूर्ण है, किन्तु उसके कथन को हम यों ही नहीं टाल सकते। उसके अनुसार भारत के जन सात जातियों में विभाजित थे--(१) दार्शनिक, (२) कृषक, (३) गोपाल एवं गड़रिया, (४) शिल्पकार, (५) रौनिक, (६) अवेक्षक तथा (७) सभासद एवं करग्राही। इनमें पहला एवं पाँचवाँ वर्ग क्रम से ब्राह्मण एवं क्षत्रिय जाति के सूचक हैं, दूसरा एवं तीसरा वर्ग वैश्य के, चौथा शूद्र का एवं छठा तथा सातवाँ अध्यक्षों एवं अमात्यों (कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार) के सूचक हैं । अध्यक्ष एवं अमात्य, वास्तव में, जातिसूचक नहीं हो सकते, ये व्यवसाय के परिचायक हैं। सम्भवतः ये पद वंशपरम्परागत थे, अतः मेगस्थनीज को भ्रम हो गया है। मेगस्थनीज ने यह भी कहा है कि एक जाति के लोग दूसरी जाति से विवाह आदि नहीं कर सकते थे और न अपनी जाति के व्यवसाय के अतिरिक्त कोई अन्य व्यवसाय कर सकते थे। यह कथन केवल सिद्धान्त की ओर संकेत करता है न कि व्यवहार की ओर । अपवाद तो सर्वत्र पाये जाते हैं।
पुण्ड्र
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