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धर्मशास्त्र का इतिहास खशों को मूलतः क्षत्रिय माना है और कहा है कि वे कालान्तर में वैदिक संस्कारों के न करने से एवं ब्राह्मणों के सम्बन्ध से दूर रहने पर शूद्रों की श्रेणी में आ गये। मनु ने यह भी कहा है कि चारों वर्गों के अतिरिक्त अन्य जातियाँ शूद्र हैं, चाहे वे आर्यों या म्लेच्छों की भाषा बोलती हों।।
पुरुषसूक्त में ब्राह्मण, राजन्य, वैश्य एवं शूद्र की जो चर्चा है तथा शतपथ ब्राह्मण में जिन चार वर्णों का उल्लेख है, वह केवल सिद्धान्त मात्र नहीं है, प्रत्युत वह एक व्यावहारिक परिचर्या का उल्लेख है। स्मृतियों ने इन चारों वर्णों को श्रुति-कथन मानकर उन्हें शाश्वत एवं निश्चित कहकर उनके विशेषाधिकारों एवं कर्तव्यों की चर्चा कर डाली है। उपर्युक्त विवेचन के उपरान्त हम निम्न सम्भावित स्थापनाएँ उपस्थित कर सकते हैं
(१) आरम्भ में केवल दो वर्ण थे-~(१) आर्य एवं उनके वैरी, (२) दस्यु या दास। यह अन्तर्भेद केवल रंग एवं संस्कृति को लेकर था, अर्थात् सम्पूर्ण समाज का दो भागों में विभाजन केवल वर्गीय एवं सांस्कृतिक था।
(२) संहिता-काल से शताब्दियों पूर्व दस्यु पराजित हो चुके थे और वे आर्यों के अधीन निम्न श्रेणी के मान लिये गये थे।
(३) पराजित दस्यु ही कालान्तर में शूद्र ठहराये गये।
(४) दस्युओं के प्रति पृथक्त्व की भावना एवं उच्चता के अहंकार के फलस्वरूप आर्यों ने क्रमशः अपने भीतर भी विभाजन की रेखाएँ खींच दीं, अर्थात् कुछ आर्य जातियाँ भी दस्युओं की श्रेणी में आती चली गयीं।
(५) ब्राह्मण-साहित्य के काल तक ब्राह्मण (अध्ययनाध्यापन एवं पौरोहित्य-कार्य में संलग्न), क्षत्रिय (राजा, सैनिक आदि) एवं वैश्य (शिल्पकार एवं सामान्य जन) विभिन्न वर्गों में बँट गये थे और उनकी जाति का निर्धारण जन्म से मान लिया गया था; इतना ही नहीं, ब्राह्मण क्षत्रिय से उच्च मान लिये गये थे।
(६) वैदिक काल के बहुत पूर्व चाण्डाल एवं पौल्कस निम्न जाति में उल्लिखित हो चुके थे।
(७) सभ्यता एवं संस्कृति के उत्थान के फलस्वरूप कार्य-विभाजन की उत्पत्ति हुई और कतिपय कलाओं एवं शिल्पकारों के उद्भव के कारण व्यवसायों पर आधारित बहुत-सी उपजातियों की सृष्टि होती चली गयी।
(८) चार वर्षों के अतिरिक्त रथकार के समान कुछ अन्य मध्यवों जातियाँ भी बन गयीं।
(९) कल अन्य अनार्य जातियां भी थीं, जिनके विषय में यह धारणा बन गयी थी कि मूलतः वे क्षत्रिय थी, किन्तु अब पदच्युत हो चुकी थीं।
वैदिक काल के अन्त होने के पूर्व निम्नलिखित जातियों का उद्भव हो चुका था। ये जातियाँ विभिन्न व्यवसायों एवं शिल्पों से सम्बन्धित थीं। वाजसनेयी संहिता, तैत्तिरीय संहिता, तैत्तिरीय ब्राह्मण, काठक संहिता (१७।१३), अथर्ववेद, ताण्ड्य ब्राह्मण (३।४), ऐतरेय ब्राह्मण, छान्दोग्य एवं बृहदारण्यकोपनिषद् के आधार पर ही निम्न सूची उपस्थित की जा रही है। कुछ एक के नाम पहले भी उल्लिखित कर दिये गये हैं और कुछ एक का अर्थ अभी नहीं ज्ञात हो सका है और उनके आगे प्रश्नवाचक चिह्न लगा दिया गया है। अजापाल (बकरी पालनेवाला) चर्मम्न
भीमल (कायर?)
चाण्डाल अयस्ताप
जम्भक (?)
मणिकार
अन्ध्र
१६. चार वर्णो का यह सिद्धान्त पौड साहित्य में भी पाया जाता है। किन्तु वहाँ सूची में क्षत्रिय लोग ब्राह्मण से पहले रखे गये हैं।
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