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________________ वर्णः; वेदों में विभिन्न व्यवसाय-शिल्प ११५ चार वर्षों के अतिरिक्त कुछ अन्य व्यवसाय एवं शिल्प से सम्बन्धित वर्ग थे जो कालान्तर में जाति-सूचक हो गये, यथा वप्ता अर्थात् नाई (ऋ० १०।१४२।४), तष्टा अर्थात् बढ़ई या रथनिर्माता (ऋ० ११६११४; ७।३२।२०; ९।११२।१; १०।११९।५). त्वष्टा या बढ़ई (८।१०२१८), भिषक् अर्थात् वैद्य (९।११२।१ एवं ३), कर्मार या का. ार अर्थात् लोहार (१०।१२।२ एवं ९।११२।२), चर्मम्न अर्थात् चर्मशोधनकार या चमार (ऋ० ८।५।३८)। अथर्ववेद में रथकार (३।५।६), कर्मार (३।५।६) एवं सूत (३।५।७) का उल्लेख हुआ है। तैतिरीय संहिता (४।५। ४१२) में क्षत्ता (चॅवर डुलाने वाला या द्वारपाल), संग्रहीता (कोषाध्यक्ष), तक्षा (बढ़ई, रथकार), कुलाल (कुम्हार), कर्मार, पुञ्जिष्ठ (व्याध), निषाद, इषुकृत् (बाणनिर्माता), धन्वकृत् (धनुषनिर्माता), मृगयु (शिकारी) एवं श्वनि (शिकारी कुत्तों को ले जानेवाले) के नाम आये हैं। ये नाम वाजसनेयी संहिता (१६।२६-२८; ३०१५-१३) तथा काठक संहिता (१७.१४) में आये हैं। तैत्तिरीय ब्राह्मण (३।४।१) में आयोग, मागध (भाट), सूत, शैलूष (अमिनेता), रेभ, भीमल, रथकार, तक्षा, कौलाल, कर्मार, मणिकार, वप (नाई, रोपनेवाला), इषुकार, धन्वकार, ज्याकार (प्रत्यंचा-निर्माता), रज्जुसर्ग, मृगयु, श्वनि, सुराकार, अयस्ताप (लोहा या ताँबा तपानेवाला), कितव (जुआरी), विदलकार, कण्टककार के नामों का उल्लेख हुआ है। ये नाम संहिताओं एवं ब्राह्मणों के प्रणयन-काल में सम्भवतः जातिभूचक भी थे। यद्यपि ये व्यवमाय एवं शिल्प के सूचक हैं, किन्तु इनसे सम्बन्धित जातियों का निर्माण प्रारम्भ हो गया था। तांण्ड्य ब्राह्मण में किरातों का भी उल्लेख है। ये अनार्य एवं आदिवासी थे। पौल्कस एवं चाण्डाल का उल्लेख वाजसनेयी संहिता (३०।१७) एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण (३।४।१४ एवं ३।४।१७) में हुआ है। छान्दोग्योपनिषद् में चाण्डाल निम्न श्रेणी में रखा गया है (५।२४।४) । नैनिगेय ब्राह्मण (१।१।४) में उल्लेख है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य क्रम से वसन्त ऋतु, ग्रीष्म ऋतु एवं शरद् ऋतु में यज्ञ करें किन्तु रथकार वर्षा ऋतु में ही यज्ञ करे। तो, क्या रथकार तीन उच्च जातियों से भिन्न है ? जैगिनि ने अपने पूर्वमीमांमासूत्र (६।११४४-५०) में रथकार को तीन जातियों से भिन्न माना है, और उसे सौधन्वन जाति का कहा है। स्पष्ट है, रथकार शूद्र तो नहीं था, किन्तु तीन उच्च जातियों से निम्न श्रेणी का अवश्य था। आज के बई कहीं-कहीं उपनयन संस्कार कराते हैं और जनेऊ भी धारण करते हैं। निषादों के विषय में स्वयं श्रौत एवं सुत्र-ग्रन्थों में मतभेद है। पूर्वमीमांसासूत्र में आया है कि निषाद रुद्र के लिए, जैसा कि वेद में आया है, 'इष्टि' दे सकता है। ऐतरेय ब्राह्मण ने निषादों को दुष्कर्मी कहा है (३७१७) । शाङ्खायन ब्राह्मण में ऐसा उल्लिखित है कि विश्वजित् यज करनेवाला निपादों की वस्ती में रहकर उनके निम्नतम श्रेणी के भोजन को ग्रहण कर सकता है (२५।१५) । सत्याषाढ कल्प (३।१) में रथकार एवं निषाद दोनों अग्निहोत्र एवं दर्श-पूर्णमास नामक कृत्यों के योग्य माने गये हैं। ऐतन्य ब्राह्मण (३३।६) " में उल्लेख है कि जब विश्वामित्र ने अपने ५० पुत्रों को आज्ञा दी कि वे शुनश्शेप को भी अपना भाई मानें और जब उनके पुत्रों ने उनकी आज्ञा का उल्लंघन किया तो उन्होंने उन सभी को अन्ध्र, पुण्ड्र, शंबर, पुलिन्द, मृतिब हो जाने का शाप दिया। ये जातियाँ दस्यु थीं। सम्भवतः इसी किंवदन्ती के आधार पर मनुस्मृति (१०।४३-४५)" ने पौण्डूकों, ओड़ों, द्रविड़ों, कम्बोजों, यवनों, शकों, पारदों, पह्नवों, चीनों, किरातों, दरदों एवं १४. ताननुव्याजहारान्तान्वः प्रजा भक्षीष्टेति। त एतेऽन्ध्राः पुण्डाः शबराः पुलिन्दा मूतिवा इत्युदन्त्या बहवो वैश्वामित्रा दस्यूनां भूयिष्ठाः । ऐतरेय ब्राह्मण (३३॥६)। १५. शनकस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातयः। वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च ॥ पौण्डकाश्चौड़द्रविडाः काम्बोजा यवनाः शकाः। पारदाः पलवाश्चीनाः किराता दरदाः खशाः॥ मुखबाहूरुपज्जाता या लोके जातयो बहिः । म्लेच्छवाचश्चार्यवाचः सर्वे ते वस्यवः स्मृतः॥ मनु० १०॥४३-४५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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