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आर्यावर्त १०७ है।' आपस्तम्बधर्मसूत्र में भी यही बात है । पतञ्जलि ने अपने महाभाष्य में यही बात कई बार दुहरायी है । शंखलिखित के धर्मसूत्र में आया है— 'अनवद्य ब्रह्मवर्चस (पुनीत आध्यात्मिक महत्ता ) सिन्धु- सौवीर के पूर्व, काम्पिल्य नगर के पश्चिम, हिमालय के दक्षिण तथा पारियात्र पर्वत के उत्तर आर्यावर्त में विराजमान है।' मनुस्मृति के अनुसार विन्ध्य के उत्तर एवं हिमालय के दक्षिण तथा पूर्व एवं पश्चिम में समुद्र को स्पर्श करता हुआ प्रदेश आर्यावर्त है। बौधायनधर्मसूत्र ( १ । ११२८ ) में गंगा एवं यमुना के मध्य का देश आर्यावर्त कहा गया है। यह दूसरा मत है। यही बात तैत्तिरीयारण्यक में भी है जहाँ कहा गया है कि गंगा-यमुना प्रदेश के लोगों को विशिष्ट आदर दिया जाता है ( २।२० ) । 'आर्यावर्त वह देश है जहाँ कृष्ण हरिण स्वाभाविक रूप से विचरण करते हैं - यह तीसरा मत, अधिकांश सभी स्मृतियों में पाया जाता है । वसिष्ठ एवं बौधायन के धर्मसूत्रों में भाल्लवियों के निदान नामक ग्रन्थ की एक प्राचीन गाथा कही गयी है, जिसमें आया है कि जिस देश के पश्चिम सिन्धु है, पूर्व में उठता हुआ पर्वत है, तथा जिस देश में कृष्ण मृग विचरण करता है, उस देश में 'ब्रह्मवर्चस' अर्थात् आध्यात्मिक महत्ता पायी जाती है। इस प्राचीन गाथा के रहस्य को याज्ञवल्क्य - स्मृति के भाष्य में विश्वरूप ( याज्ञ० १।२ ) ने श्वेताश्वतर के एक गद्यांश के उद्धरण से स्पष्ट किया है कि 'यज्ञ एक बार कृष्ण मृग बनकर पृथिवी पर विचरण करने लगा और धर्म ने उसका पीछा करना आरम्भ किया ।'
आर्यावर्त की उपर्युक्त सीमा के विषय में शंख, विष्णुधर्मसूत्र (८४१४), मनु, (२।२३), याज्ञवल्क्य (११२), संवर्त (४), लंघु-हारीत, वेदव्यास ( १1३), बृहत् पराशर तथा अन्य स्मृतियों ने समान मत प्रकाशित किया है । मनुस्मृति (२।१७-२४ ) ने ब्रह्मावर्त को सरस्वती एवं दृषद्वती नामक दो पवित्र नदियों के बीच में स्थित माना है और कहा है कि इस प्रदेश का परम्परागत आचार 'सदाचार' कहा जाता है। मनु ने कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पञ्चाल एवं शूरसेन को ब्रह्मदेश कहा है और इसे ब्रह्मावर्त से थोड़ा कम पवित्र माना है। उनके मत से हिमालय एवं विन्ध्य के मध्य में और विनशन (सरस्वती) के पूर्व एवं प्रयाग के पश्चिम का देश मध्यदेश है, तथा आर्यावर्त वह देश है जो हिमालय एवं विन्ध्य के मध्य में है, जो पूर्व-पश्चिम में समुद्र से घिरा हुआ है तथा जहाँ कृष्ण मृग स्वाभाविकतया विचरण करते हैं। उनके मत से यह आर्यावर्त यज्ञ के योग्य माना जाता है। इन उपर्युक्त देशों के अतिरिक्त अन्य देश म्लेच्छदेश कहे जाते हैं। मनु ने तीन उच्च वर्णों के मनुष्यों को ब्रह्मावर्त, ब्रह्मर्षिदेश, मध्यदेश, आर्यावर्त आदि देशों में रहने को कहा है । उनके मत से आपत्काल में शूद्र वर्ण के लोग कहीं भी रह सकते हैं।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अति प्राचीन काल में विन्ध्य के दक्षिण की भूमि आर्यसंस्कृति से अछूती थी । बौधायनधर्मसूत्र (१|१|३१) का कहना है कि अवन्ति, अंग, मगध, सुराष्ट्र, दक्षिणापथ, उपावृत्, सिन्धु एवं सौवीर देश के लोग शुद्ध आर्य नहीं हैं। इसका यह भी कहना है कि जो आरट्टक, कारस्कर, पुण्ड्र, सौवीर, अंग, वंग, कलिंग एवं प्रानून (?) जाता है उसे सर्व पृष्ठ नामक यज्ञ करना पड़ता है और कलिंग जानेवाले को तो प्रायश्चित्त के लिए वैश्वानर अग्नि में हवन करना पड़ता है । याज्ञवल्क्यस्मृति के भाष्य मिताक्षरा में देवल का एक ऐसा उद्धरण आया है जिससे यह पता चलता है कि सिन्धु, सौवीर, सौराष्ट्र, म्लेच्छदेश, अंग, वंग, कलिंग एवं आन्ध्र देश में जानेवाले को उपनयन संस्कार कराना पड़ता था। किन्तु ज्यों-ज्यों आर्य संस्कृति का प्रसार चतुर्दिक् होता गया, ऐसी धारणाएँ निर्मूल होती गयीं और सम्पूर्ण देश सबके योग्य समझा जाने लगा। आर्य-संस्कृति के उत्तरोत्तर पूर्व एवं दक्षिण की ओर बढ़ने से एवं अनाय द्वारा उत्तर-पश्चिमी सीमा एवं पंजाब पर आक्रमण होने से पंजाब की नदियों वाला प्रदेश आर्यों के वास के लिए अयोग्य समझा जाने लगा । कर्णपर्व में सिन्धु एवं पंजाब की पाँच नदियों के देश में रहनेवालों को अशुद्ध एवं धर्मबाह्य कहा गया है (४३।५-८) ।
वैदिक धर्म जहाँ तक परिव्याप्त है, उस भूमि को विशेषतः पुराणों में भरतवर्ष या भारतवर्ष कहा गया है। खारवेल के हाथीगुम्फा के अभिलेख में इस शब्द को मरघवस कहा गया है। मार्कण्डेयपुराण ( ५७/५९ ) के अनुसार
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