________________
धर्मशास्त्र का इतिहास
इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्मशास्त्रकारों ने नैतिक गुणों को बहुत महत्त्व दिया है और इनके पालन के लिए बल भी दिया है, किन्तु धर्मशास्त्र में उनका सीधा सम्पर्क व्यावहारिक जीवन से था, अतः उन्होंने सामान्य धर्म की अपेक्षा वर्णाश्रमधर्म की विशद व्याख्या करना अधिक उचित समझा।
आर्यावर्त धर्मशास्त्र-सम्बन्धी ग्रन्थों में वैदिक धर्म के अनुयायियों के देश या क्षेत्र आर्यावर्त के विषय में प्रभूत चर्चा होती रही है। ऋग्वेद के अनुसार आर्य-संस्कृति का केन्द्र सप्तसिन्धु अर्थात् आज का उत्तर-पश्चिमी भारत एवं पंजाब था (सात नदियों का देश सप्तसिन्धु) । कुभा (काबुल नदी, ऋ० ५।५३।९; १०७६।६) से क्रुमु (आज का कुर्रम, ऋ० ५।५३।९; १०१७५।६), सुवास्तु (आज का स्वात, ऋ० ८।१९।३७), सप्तसिन्धु (सात नदियाँ, ऋ० २।१२ १२; ४।२८।१; ८।२४।२७; १०॥४३॥३), यमना (ऋ० ५१५२११७; १०७५१५), गंगा (ऋ० ६।४५ । ३१; १०७५।५) एवं सरयू (सम्भवतः आज के अवध में, ऋ० ४।३०।१४ एवं ५।५३३९) तक ऋग्वेद में वर्णित हैं। पंजाब की नदियाँ ये हैं-सिन्धु (ऋ० २।१५।६; ५।५३।९; ४।३०।१२; ८।२०।२५), असिक्नी (ऋ० ८।२०।२५, १०७५।५.)), परुष्णी (ऋ० ४।२२।२; ५।५२।९), विपाश् एवं शुतुद्रि (ऋ० ३।३३।१-यहाँ दोनों के संगम का उल्लेख है), दृथद्वती, आपया एवं सरस्वती (ऋ० ३।२३।४ परम पवित्र), गोमती (ऋ० ८।२४। ३०; १०।७५।६), वितस्ता (ऋ० १०।७५।५) । आर्यों ने क्रमशः दक्षिण एवं पूर्व की ओर बढ़ना प्रारम्भ किया। काठक ने कुरु-पञ्चाल का उल्लेख किया है। ब्राह्मणों के युग में आर्य क्रिया-कलापों एवं संस्कृति का केन्द्र कुरु-पञ्चाल एवं कोसल-विदेह तक बढ़ गया। शतपथब्राह्मण के मत में कुरु-पञ्चालों की भाषा या बोली सर्वोत्तम थी। कुरु-पञ्चाल के उद्दालक आरुणि की बोली की प्रशंसा की गयी है। विदेह माठव, कोसल-विदेह के आगे हिमालय से उतरी हुई सदानीरा नदी को पार करके उसके पूर्व में बसे, जहाँ की भूमि उन दिनों बड़ी उर्वर थी। यहाँ तक कि बौद्ध जातक कहानियों में हमें 'उदिच्च ब्राह्मणों' का प्रयोग उनके अभिमान के सूचक के रूप में प्राप्त होता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में देवताओं को वेदी कुरु-क्षेत्र में कही गयी है (५।१११)। ऋग्वेद में भी ऐसा आया है कि वह स्थान, जहाँ से दृषद्वती, आपया एवं सरस्वती नदियाँ बहती हैं, सर्वोत्तम स्थान है (३।२३।४) । तैत्तिरीय ब्राह्मण में आया है कि कुरु-पञ्चाल जाड़े में पूर्व की ओर और गर्मी के अन्तिम मास में पश्चिम की ओर जाते हैं। उपनिषद्-काल में भी कुरु-पञ्चाल प्रदेश की विशिष्ट महत्ता थी। जब जनक (विदेहराज) ने यज्ञ किया तो कुरु-पञ्चाल के ब्राह्मण बहुत संख्या में उनके यहाँ पधारे (बृ० उ० ३।१।१) । श्वेतकेतु पञ्चालों की सभा में गये (बृ. उ० ३।९।१९, ६।२।१; छान्दोग्य० ५।३।१) । कौषीतकी ब्राह्मणोपनिषद् में आया है कि उशीनर, मत्स्य, कुरुपञ्चाल, काशी-विदेह क्रिया-कलापों के केन्द्र हैं (४१); इसी उपनिषद् में उत्तरी एवं दक्षिणी दो पहाड़ों (सम्भवतः हिमालय एवं विन्ध्य) की ओर संकेत है (२।१३) । निरुक्त (२।२) में लिखा है कि कम्बोज देश आर्यों की सीमा के बाहर है, यद्यपि वहाँ की भाषा आर्यभाषा ही प्रतीत होती है। महाभाष्य के अनुसार सुराष्ट्र आर्य देश नहीं था। आर्यावर्त की सीमा एवं स्थिति के विषय में धर्मसूत्रों में बड़ा मतभेद पाया जाता है । वसिष्ठधर्मसूत्र के अनुसार आर्यावर्त मरु-मिलन के पहले सरस्वती के पूर्व, कालकवन के पश्चिम, पारियात्र एवं विन्ध्य पर्वत के उत्तर तथा हिमालय के दक्षिण है (११८-९, १२-१३) । इस धर्मसूत्र ने दो और मत दिये हैं—'गंगा एवं यमुना के मध्य में आर्यावर्त है' तथा 'जहाँ कृष्ण मृग विचरण करते हैं वहीं आध्यात्मिक महत्ता विराजमान
१९. तस्मादत्रोत्तरा हि वाग्वदति कुरुपञ्चालवा। शतपथ बा० ३।२।३।१५।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org