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धर्मशास्त्र का इतिहास
बालम्भट्टी के लेखक को बताना पहेली बूझना है। शीला, विज्जा, अवन्तिसुन्दरी की गणना कविता-प्रणयिनियों में होती है। इसी प्रकार कहा जाता है कि लीलावती नामक एक नारी ने गणित शास्त्र पर एक ग्रन्थ लिखा । धर्मशास्त्र - सम्बन्धी कृतियों के लिए रानियों एवं राजकुमारियों से भी प्रेरणाएँ मिलती रही हैं, यथा मिसरू मिश्र का विवादचन्द्र लक्ष्मीदेवी का प्रेरणा फल है, विद्यापति के द्वारा मिथिला की महादेवी धीरमती ने दानवाक्यावलि का संग्रह कराया, भैरवेन्द्र की रानी जया के आग्रह से वाचस्पति मिश्र ने द्वैतनिर्णय का प्रणयन किया। यह सन्तोष का विषय है। कि एक नारी ने ही 'बालम्भट्टी' नामक एक धर्मशास्त्र-सम्बन्धी ग्रन्थ लिखा है । बालम्मट्टी के आरम्भ में ऐसा आया है कि लक्ष्मी पायगुण्डे की पत्नी, मुद्गल गोत्र के तथा खेरडा उपाधि वाले महादेव की पुत्री थी और उसका एक दूसरा नाम था उमा । आचार-भाग के अन्त में आया है कि इसकी लेखिका लक्ष्मी महादेव एवं उमा की पुत्री है, वैद्यनाथ पायगुण्डे की पत्नी है एवं बालकृष्ण की माता है। लक्ष्मी ने नारियों के स्वत्वों की भरपूर रक्षा करने का प्रयत्न किया है। किन्तु यह बात सभी स्थानों पर नहीं पायी जाती और स्थान-स्थान पर नागोजिभट्ट के शिष्य वैद्यनाथ पायगुण्डे के ग्रन्थ मञ्जूषा तथा लेखक के गुरु एवं पिता के ग्रन्थों की चर्चा पायी जाती है। इससे यह सिद्ध हो सकता है कि बालम्भट्टी नामक ग्रन्थ या तो स्वयं वैद्यनाथ का लिखा हुआ है और उन्होंने अपनी स्त्री का नाम दे दिया है, या यह उनके पुत्र बालकृष्ण उर्फ बालम्भट्ट द्वारा लिखा हुआ है और माता का नाम दे दिया गया है। वैधनाथ एवं बालकृष्ण दोनों प्रसिद्ध लेखक थे, इसमें कोई सन्देह नहीं है । सम्भवतः बालकृष्ण ने बालम्भट्टी का प्रणयन किया है। वे दक्षिणी ब्राह्मण थे । बालकृष्ण पाश्चात्य विद्वान् कोलब्रुक के शब्दों में एक पण्डित थे। बालकृष्ण को बालम्भट्ट भी कहा गया है। इनका काल १७३० एवं १८२० ई० के बीच में कहा जा सकता है।
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११२. काशीनाथ उपाध्याय.
काशीनाथ उपाध्याय ने धर्मसिन्धुसार या धर्माब्धिसार नामक एक बृहद् ग्रन्थ लिखा है। इन्हें बाबा पाध्ये भी कहा जाता है। इनका धर्म सिन्धुसार आधुनिक दक्षिण में परमं प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है, विशेषतः धार्मिक बातों में। उन्होंने स्वयं लिखा है कि उन्होंने अपने पूर्ववर्ती निबन्धों को पढ़कर निर्णयसिन्धु में वर्णित विषयों के आधार पर केवल सार-तत्त्व दिया है और मौलिक स्मृतियों के वचनों को त्याग दिया है। उन्होंने यह भी लिखा है कि उनका ग्रन्थ मीमांसा एवं धर्मशास्त्रों के विद्वानों के लिए नहीं है । सम्पूर्ण ग्रन्थ तीन परिच्छेदों में विभक्त है, जिनमें तीसरा बृहत् है और दो भागों में विभाजित है ।
काशीनाथ उद्भट विद्वान् थे । वे शोलापुर जिले के पंढरपुर के बिठोवा देवता के परम भक्त थे। उन्होंने धर्मसिन्धुसार के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थ भी लिखे हैं, यथा प्रायश्चित्तशेखर, विट्ठल- ऋग्मन्त्रसारभाष्य आदि । काशीनाथ के विषय में बहुत-सी बातें ज्ञात हैं। मराठी कवि मोरो पन्त ने इनका जीवन चरित लिखा है। ये कर्हाडे ब्राह्मण थे और रत्नागिरि जिले के गोलावली ग्राम के निवासी थे । धर्मसिन्धुसार का प्रणयन १७९० ई० में हुआ था। वे कवि मोरो पन्त के सम्बन्धी थे । उनकी पुत्री आवड़ी का विवाह मोरो पन्त के द्वितीय पुत्र से हुआ था। वे अन्त में संन्यासी हो गये थे और सन् १८०५-६ ई० में स्वर्गवासी हुए ।
११३. जगन्नाथ तर्कपंचानन
जब बंगाल में अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो गया तो हिन्दू कानून के विषय में सुलभ निबन्धों के संग्रह का प्रयत्न किया जाने लगा | वारेन हेस्टिंग्स के काल में १७७३ ई० मे विवादार्णवसेतु प्रणीत हुआ । सन् १७८९ ई० में सर विलियम जोंस की प्रेरणा से त्रिवेदी सर्वोर शर्मा ने ९ तरंगों (भागों) में विवादसारार्णव नामक निबन्ध लिखा । किन्तु
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