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________________ ९७ जगन्नाथ तर्कपंचानन निष्कर्ष इन प्रयत्नों में सर्वश्रेष्ठ प्रयत्न था विवादभंगार्णव का, जो रुद्र तर्कवागीश के पुत्र जगन्नाथ तर्कपंचानन द्वारा प्रणीत हुआ। सर विलियम जोंस ने ही इसके लिए आग्रह किया था। कोलबुक ने इसका अनुवाद सन् १७९६ ई० में तथा प्रकाशन सन् १७९७ ई० में किया। यह निबन्ध द्वीपों में तथा प्रत्येक द्वीप रत्नों में बँटा हुआ है। जगन्नाथ तर्कपंचानन की मृत्यु १११ वर्ष की आयु में, सन् १८०६ ई० में हुई। बंगाल में इनकी कृति बहुत प्रामाणिक रही है, किन्तु पश्चिमी भारत में वह कोई विशिष्ट स्थान नहीं प्राप्त कर सकी। ११४. निष्कर्ष गत पृष्ठों में धर्मशास्त्र-सम्बन्धी ग्रन्थों का बहुत ही संक्षेप में वर्णन उपस्थित किया गया है। वास्तव में, धर्मशास्त्र पर इतने ग्रन्थ हैं कि उन्हें एक सूत्र में बाँधना बडा दुस्तर कार्य है। गत पृष्ठों में लगभग २५०० वर्षों के धर्मशास्त्रकारों एवं उनके ग्रन्थों का जो लेखा-जोखा बहुत थोड़े में उपस्थित किया गया है, उससे स्पष्ट है कि हमारे धर्मशास्त्रकारों ने हिन्दू समाज को धार्मिक, नैतिक, कानूनी आदि सभी मामलों में एक सूत्र में बाँध रखना चाहा है। उन्होंने प्रत्येक जाति के सदस्यों एवं प्रत्येक व्यक्ति को आर्य समाज का अविच्छेद्य अंग माना है, कहीं भी व्यक्तिगत स्वत्वों को सम्पूर्ण समाज के ऊपर नहीं माना। यदि ऐसा नहीं किया गया होता तो आर्य जाति या आर्य समाज बाह्य आक्रमणों एवं विविध कालों की मार एवं चपेट से छिन्न-भिन्न हो गया होता। धर्मशास्त्रकारों ने आर्य सभ्यता एवं संस्कृति को बाह्य शासकों की कट्टर धार्मिकता के प्रभाव से अक्षुण्ण रखा। इसमें सन्देह नहीं कि कभी-कमी कालान्तर के कुछ धर्मशास्त्रकारों ने धार्मिक मामलों में तर्क से काम लिया है और पृथक्त्व, वैमिन्न्य एवं पक्षपात का प्रदर्शन किया है, किन्तु ऐसे लेखकों की चली नहीं, क्योंकि केन्द्रीय शासन से उनका सीधा सम्पर्क कभी नहीं था, अन्यथा अनर्थ हो गया होता, क्योंकि राजाओं की छत्रच्छाया में उनकी बातें मन माने रूप में प्रतिफलित होती और पृथक्त्ववाद का विषवृक्ष विकराल रूप में उमर पड़ता। संयोग से ऐसा हो नहीं पाया, क्योंकि बाहरी शासकों को भारतीय संस्कृति से कोई प्रेम या भक्ति नहीं रही। इस छोटे दोष के अतिरिक्त धर्मशास्त्र-सम्बन्धी ग्रन्थों के महार्णव में मोती ही मोती भरे पड़े हैं। भारतीय संस्कृति के स्वरूपों को सूत्रों में पिरोकर रखनेवाले धर्मशास्त्रकारों को कोटिशः प्रणाम। धर्म०-१३ www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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