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________________ अनन्तवेव, नागोजिभट्ट, बालकृष्ण या बालम्भट्ट ९५ पूजन, नारायणबलि एवं नागबलि; पञ्चगव्य, कृच्छ्र एवं अन्य प्रायश्चित्त चान्द्रायणव्रत; किसे गोद लिया जाय, कौन गोद लिया जा सकता है, गोद-सम्बन्धी कृत्य, दत्तक का गोत्र एवं सपिण्ड, दत्तक द्वारा परिदेवन ( विलाप ), दत्तक का उत्तराधिकार; पुत्रकामेष्टि, पुसवन; अनवलोभन, सीमन्तोन्नयन सन्तानोत्पत्ति पर कृत्य; जन्म पर अशुद्धि; जन्म पर अशुभ रूपों के शमनार्थ कृत्य; नामकरण; निष्क्रमण; अन्नप्राशन; कर्णछेदन; जन्मदिनोत्सव चौल; उपनयन; इसके लिए उचित काल, उचित सामग्री, गायत्री, ब्रह्मचर्य व्रत समावर्तन; विवाह; इसके लिए सपिण्ड, गोत्र एवं प्रवर, विवाह के लिए उचित काल; विवाह प्रकरण, वातश्चय, सीमन्तपूजन, मधुपर्क, कन्यादान, विवाहहोम, सप्तपदी, दम्पति-प्रवेश पर होम । संस्कारकौस्तुम का एक अंश दत्तकदीधिति कभी-कभी पृथक् रूप से भी उल्लिखित मिलता है। सचमुच, यह अंश महत्त्वपूर्ण है और इसका अध्ययन दत्तकमीमांसा, व्यवहारमयूख तथा अन्य तत्सम्बन्धी ग्रन्थों के साथ होना चाहिए । निर्णयसिन्धु एवं नीलकण्ठ के मयूखों के समान अनन्तदेव ने अपने संस्कारकौस्तुभ में सैकड़ों लेखकों एवं ग्रन्थों का उल्लेख किया है। उन्होंने विशेषतः मिताक्षरा, अपराकं, हेमाद्रि, माधव, मदनरत्न, मदनपारिजात का सहारा लिया है। अनन्तदेव ने अपने आश्रयदांता के वंश का वर्णन किया है। बाजबहादुर उनके आश्रयदाता थे और उन्हीं की प्रेरणा से उन्होंने यह निबन्ध लिखा । अनन्तदेव ने अपने बारे में लिखा है कि वे महाराष्ट्र सन्त एकनाथ के वंशज थे । अनन्तदेव सम्भवतः १७वीं शताब्दी के तृतीय चरण में हुए थे, जैसा कि उनके आश्रयदाता बाजबहादुर तथा उनके पूर्वज एकनाथ की तिथियों से प्रकट होता है । ११०. नागोजिभट्ट नागोजिभट्ट एक परम उद्भट विद्वान् थे । वे सभी प्रकार की विद्याओं के आचार्य थे । यद्यपि उनका विशिष्ट ज्ञान व्याकरण में था, किन्तु उन्होंने साहित्य-शास्त्र, धर्मशास्त्र, योग तथा अन्य शास्त्रों पर भी अधिकारपूर्वक लिखा है । उनके तीस ग्रन्थ अब तक प्राप्त हो सके हैं। आचारेन्दुशेखर, अशौचनिर्णय, तिथीन्दुशेखर, तीर्थेन्दुशेखर, प्रायश्चितेन्दुशेखर या प्रायश्चित्तसारसंग्रह, श्राद्धेन्दुशेखर, सपिण्डीमञ्जरी एवं सापिण्ड्यदीपक या सापिण्ड्यनिर्णय उनके धर्मशास्त्र - सम्बन्धी ग्रन्थ हैं । हम यहाँ पर उनके ग्रन्थों के विषय में कुछ न कह सकेंगे। नागोजिभट्ट महाराष्ट्र ब्राह्मण थे, उनकी उपाधि थी काल (काले ) । वे प्रसिद्ध वैयाकरण भट्टोजिदीक्षित की पंरपरा में हुए थे। उनके आश्रयदाता थे प्रयाग के समीप शृंगवेरपुर के विसेनकुल के राम नामक राजा । नागोजिभट्ट भट्टोजिदीक्षित के पौत्र के शिष्य थे और भट्टोजिदीक्षित १७वीं शताब्दी के प्रथमार्ध में हुए थे । नागोजिभट्ट ने कम-से-कम ५० वर्ष व्यतीत किये होंगे अपने लेखन कार्य में । अतः भट्टोजिदीक्षित के लगभग एक शताब्दी उपरान्त ही उनकी मृत्यु हुई होगी। अतः हम उन्हें १८वीं शताब्दी के आरम्भ में तो रख ही सकते हैं । १११. बालकृष्ण या बालम्भट्ट लक्ष्मीव्याख्यान उर्फ बालम्भट्टी विज्ञानेश्वर की मिताक्षरा पर एक भाष्य हैं। कहा जाता है कि यह लक्ष्मीदेवी नामक एक नारी द्वारा प्रणीत है। यह एक बृहद् ग्रन्थ है, किन्तु बहुत ही ऊबड़-खाबड़ ढंग से प्रस्तुत किया गया है। बालम्भट्टी में अनेक ग्रन्थों एवं ग्रन्थकारों के नाम आये हैं। कुछ नाम ये हैं-- निर्णयसिन्धु, वीरमित्रोदय, नीलकण्ठ का मयूख, संस्कारकौस्तुभ, नीलकण्ठ के भतीजे सिद्धेश्वरभट्ट, मीमांसासूत्र पर भाट्टदीपिका के लेखक खण्डदेव, गागाभट्ट कृत कायस्थधर्मप्रदीप आदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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