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________________ मिसरू मिश्र, वाचस्पति मिश्र, नृसिंहप्रसाद ८६ कुमार चन्द्रसिंह की स्त्री राजकुमारी लछिमादेवी की आज्ञा से पुस्तकें लिखीं। 'हमने बहुत पहले ही देख लिया है कि चण्डेश्वर ने सन् १३१४ ई० में भवेश के आश्रय में राजनीति पर एक ग्रन्थ लिखा था। लछिमादेवी इसी भवेश के प्रपौत्र की पत्नी थी। चन्द्रसिंह लछिमादेवी के पति के रूप में १५वीं शताब्दी के मध्य भाग में हुए होंगे। अतः मिसरू मिश्र का विवादचन्द्र १५वीं शताब्दी के मध्य में लिखा गया होगा। विवादचन्द्र मिथिला में व्यवहार-सम्बन्धी प्रामाणिक ग्रन्थ रहा है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। ९८ वाचस्पति मिश्र मिथिला के सर्वश्रेष्ठ निबन्धकार थे वाचस्पति मिश्र। व्यवहारों (कानूनों) के संसार में इनकी विवादचिन्तामणि बहुत ही प्रसिद्ध रही है। वाचस्पति मिश्र एक प्रतिभाशाली लेखक थे, इन्होंने बहुत-से ग्रन्थ लिखे हैं। 'चिन्तामणि' की उपाधि वाले इनके ११ ग्रन्थों का पता चल सका है। आचारचिन्तामणि में वाजसनेयियों के आह्निक कृत्यों का उल्लेख है। शुद्धिचिन्तामणि में आह्निकचिन्तामणि की चर्चा हुई है। कृत्यचिन्तामणि में वर्ष भर के उत्:वों का वर्णन है। तीर्थचिन्तामणि में प्रयाग, पुरुषोत्तम (पुरी), गंगा, गया एवं वाराणसी के तीर्थों का वर्णन है। वाचस्पति ने कल्पतरु, गणेश्वर मिश्र, जयशर्मा, मिताक्षरा, स्मृतिसमुच्चय एवं हेमाद्रि का यथास्थान उल्लेख किया है। द्वैतचिन्तामणि का नाम कृत्यचिन्तामणि में आ जाता है। विवादचिन्तामणि में नौतिचिन्तामणि की चर्चा होती गयी है। व्यवहारचिन्तामणि में कानूनी रीतियों का विशद वर्णन है। इस ग्रन्थ के भाषा, उत्तर, क्रिया, निर्णय नामक चार प्रमुख विषय हैं। शुद्धिचिन्तामणि तथा शूद्राचारचिन्तामणि का भी प्रकाशन हो चुका है। इनमें प्रसिद्ध लेखकों एवं ग्रन्थों के अतिरिक्त ३४ अन्य नामों का यथास्थान उल्लेख हुआ है। स्पष्ट है, वाचस्पति बड़े प्रकाण्ड विद्वान् थे। वाचस्पति मिश्र ने चिन्तामणियों के अतिरिक्त बहुत से “निर्णयों" का प्रणयन किया है, यथा-तिथिनिर्णय, द्वैतनिर्णय, महादाननिर्णय, शुद्धिनिर्णय आदि। इतना ही नहीं, उन्होंने सात महार्णवों, यथा--कृत्य, आचार, विवाद, व्यवहार, दान, शुद्धि एवं पितृयज्ञ का प्रणयन किया है। वाचस्पति धर्मशास्त्रकार के अतिरिक्त दार्शनिक भी थे। उन्होंने दर्शन-सम्बन्धी भामती आदि प्रौढ ग्रन्थ भी लिखे थे। अपने ग्रन्थों में वाचस्पति ने अपने को महामहोपाध्याय, मिश्र या सन्मिश्र लिखा है। वे महाराजाधिराज हरिनारायण के पारिषद (सलाहकार) थे। वाचस्पति ने रत्नाकर एवं रुद्रधर का उल्लेख किया है, अतः वे १४२५ ई० के उपरान्त हुए होंगे। गोविन्दानन्द एवं रघुनन्दन ने वाचस्पति की चर्चा की है, अत: वे १५४० ई० के पूर्व हुए होंगे। अतः हम उन्हें १५वीं शताब्दी के मध्य में कहीं रख सकते हैं। । ९९. नृसिंहप्रसाद नृसिंहप्रसाद तो धर्मशास्त्र-सम्बन्धी एक विश्व-कोश ही है। यह १२ सारों (विभागों) में विभाजित है, यथा संस्कार, आह्निक, श्राद्ध, काल, व्यवहार, प्रायश्चित्त, कर्मविपाक, व्रत, दान, शान्ति, तीर्थ एवं प्रतिष्ठा। प्रत्येक विभाग के अन्त में नृसिंह (विष्णु के एक अवतार) की अभ्यर्थना की गयी है, सम्भवतः इसी से इसका नाम नृसिंहप्रसाद रखा गया है। ___ संस्कारसार में देवगिरि (आधुनिक दौलताबाद) के राम राजा, दिल्ली के राजा शामवित् तथा उसके पश्चात् निजामशाह के नाम यथाक्रम से आये हैं। लेखक ने अपने को याज्ञवल्क्यशाखा (शुक्ल यजुर्वेद) के भारद्वाज गोत्र वाले वल्लम का पुत्र, दलपति (दलाधीश) एवं नेबजन (राजकीय लेख-रक्षक ? ) कहा है। क्या दलपति अथवा दलाधीश उसका नाम था? कुछ कहा नहीं जा सकता। धर्म-१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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