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धर्मशास्त्र का इतिहास
की सर्वप्रथम कृति सम्भवतः दीपकलिका थी, जो याज्ञवल्क्य की एक टीका मात्र है। यह एक छोटी पुस्तिका है. इसमें दायभाग का अंश केवल ५ पृष्ठों में मुद्रित हो जाता है। इस पुस्तिका में कल्पतरु, गोविन्दराज, मिताक्षरा, मेघातिथि एवं विश्वरूप के मत उल्लिखित मिलते हैं। शूलपाणि ने कई ग्रन्थ लिखे हैं, किन्तु ये धर्मशास्त्रसम्बन्धी विभिन्न विषयों से ही सम्बन्धित हैं, और ऐसा प्रतीत होता है कि इन्होंने सब भागों को मिलाकर स्मृतिविवेक नाम रखा है । विभिन्न ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं-- एकादशी - विवेक, तिथि-विवेक, दत्तक - विवेक, दुर्गोत्सवप्रयोग-विवेक, दुर्गोत्सव - विवेक, दोलयात्राविवेक, प्रतिष्ठाविवेक, प्रायश्चित्तविवेक, रासयात्राविवेक, व्रतकालविवेक, शुद्धि-विवेक, श्राद्ध-विवेक, संक्रान्तिविवेक, सम्बन्ध - विवेक । शूलपाणि की श्राद्ध-विवेक नामक पुस्तिका अति ही विख्यात है । दुर्गोत्सवविवेक सम्भवतः सबसे अन्त में प्रणीत हुआ है, क्योंकि इसमें ५ अन्य विवेकों के भी नाम आ जाते हैं। दुर्गोत्सवविवेक में आश्विन एवं चैत्र मास वाली दुर्गा की पूजा का वर्णन है। दुर्गा की पूजा वसन्त ऋतु मैं भी होती थी, इसी से दुर्गा को कभी-कभी वासन्ती भी कहा जाता है। श्राद्धविवेक पर अनेक माष्य हैं, जिनमें श्रीनाथ, आचार्य चूड़ामणि एवं गोविन्दानन्द के भाष्य अति प्रसिद्ध हैं। अन्य विवेकों के भी भाष्य हैं। इन सभी विवेकों में प्राचीन आचार्यों एवं धर्मशास्त्रकारों के नाम आ जाते हैं।
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शूलपाणि के व्यक्तिगत इतिहास के विषय में कुछ नहीं विदित है। अपने ग्रन्थों में वे साहुडियाल महामहोपाध्याय कहे गये हैं । बल्लालसेन के काल से बंगाल में साहुडियाल ब्राह्मण निम्न श्रेणी के कहे जाते रहे हैं। ये लोग राढीय ब्राह्मण थे। शूलपाणि के काल के विषय में निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन है । इन्होंने चण्डेश्वर के रत्नाकर एवं कालमाधवीय का उल्लेख किया है, अतः ये १३७५ ई० के उपरान्त ही हुए होंगे । इनके नाम का उद्घोष रुद्रधर, गोविन्दानन्द एवं वाचस्पति ने किया है, अतः ये १४६० के पूर्व ही हुए होंगे । इससे स्पष्ट होता है कि शूलपाणि १३७५-१४६० के बीच में कभी थे ।
९६. रुद्रधर
रुद्रधर मैथिल धर्मशास्त्रकार थे। इन्होंने कई एक ग्रन्थ लिखे हैं । इनका शुद्धिविवेक कई बार प्रकाशित हो चुका है। इसमें तीन परिच्छेद हैं, जिनमें सात अन्य निबन्धों के उद्धरण भी उल्लिखित हैं। इसमें रत्नाकर, पारिजात, मिताक्षरा एवं हारलता के उल्लेख हैं । इनके अतिरिक्त आचारादर्श, शुद्धिप्रदीप, शुद्धिबिम्ब, श्रीदत्तोपाध्याय, स्मृतिसार एवं हरिहर के नाम आये हैं । रुद्रधर का श्राद्धविवेक चार परिच्छेदों में विभवत है । वर्षकृत्य नामक एक अन्य ग्रन्थ भी इन्हीं का है । वाचस्पति ने उनकी चर्चा की है। गोविन्दानन्द, रघुनन्दन एवं कमलाकर ने अपने ग्रन्थों में उनका यथास्थान उल्लेख किया है। रुद्रवर ने रत्नाकर, स्मृतिसार, शूलपाणि का उल्लेख किया है, अतः वे १४२५ ई० के पश्चात् ही हुए होंगे। वाचस्पति आदि के ग्रन्थों में उनका उल्लेख हुआ है । वे १४२५-१४६० के मध्य में कभी विराजमान थे।
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९७. मिसरू मिश्र
विवादचन्द्र एवं न्याय-वैशेषिक मत-सम्बन्धी पदार्थचन्द्रिका के लेखक के रूप में मिसरू मिश्र का नाम अति प्रसिद्ध है । विवादचन्द्र में ऋणादान, न्यास, अस्वामिविक्रय, सम्भूयसमुत्थान (साझा), दायविभाग: स्त्रीवन, अभियोग, उत्तर, प्रमाण, साक्षियों आदि पर व्यवहार पद हैं । चण्डेश्वर के रत्नाकर के मत बहुधा उल्लिखित हुए हैं। विवादचन्द्र में अन्य स्मृतिकारों एवं ग्रन्थों के अतिरिक्त पारिजात, प्रकाश, बालरूप (बहुधा), भवदेव, स्मृतिसार के नाम भी आये हैं। मिसरू मिश्र ने मिथिला के कामेश्वर वंश के भैरवसिहदेव के छोटे भाई
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