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________________ कल्पतरु, जीमूतवाहन ७७. लक्ष्मीघर का कल्पतरु कल्पतरु ने मिथिला, बंगाल एवं सामान्यतः सम्पूर्ण उत्तर भारत को प्रभावित कर रखा था। यह एक बृहद् ग्रन्थ था, किन्तु अभाग्यवश अभी इसकी सम्पूर्ण प्रति नहीं मिल सकी है। यह ग्रन्थ कई काण्डों में विभाजित था। सम्पूर्ण ग्रन्थ को कृत्यकल्पतरु या केवल कल्पतरु या कल्पद्रुम या कल्पवृक्ष कहा जाता है। इस ग्रन्थ में धर्मशास्त्र-सम्बन्धी सारी बातों पर प्रकाश डाला गया है, ऐसा लगता है। लक्ष्मीधर राजा गोविन्दचन्द्र के सान्धिविग्रहिक मन्त्री थे। उनकी कूटनीतिक चालों से ही गोविन्दचन्द्र ने अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त की, ऐसा कल्पतरु में आया है। यद्यपि कल्पतरु मिताक्षरा से बहुत बड़ा है, किन्तु विद्वत्ता, सम्पादन एवं व्याख्या में उसकी कोई बराबरी नहीं कर सकता। इसमें आचार-सम्बन्धी बातों के अतिरिक्त व्यवहार-विषयक कई काण्ड थे। राजधर्म पर भी लक्ष्मीधर ने पर्याप्त प्रकाश डाला है। कल्पतरु में विशेषतः स्मृतिकारों, महाकाव्यों एवं पुराणो के ही उद्धरण आये हैं। व्यवहार काण्ड में मेधातिथि, शंखलिखित के भाष्य, प्रकाश, विज्ञानेश्वर, हलायुध एवं कामधेनु नामक निबन्धों के उद्धरण भी हैं। लक्ष्मीधर की तिथि सरलता से सिद्ध की जा सकती है। उन्होंने विज्ञानेश्वर को उद्धृत किया है, अत: वे ११०० के बाद ही आ सकते हैं। अनिरुद्ध की कर्मोपदेशिनी (११६० ई० में लिखित) में कल्पतरु के उद्धरण आये हैं, अत: वे ११००-११५० के वीच ही में कभी हुए होंगे। लक्ष्मीधर गहड़वार या राठौर राजा गोविन्दचन्द्र के मन्त्री थे, इस रूप में वे १२वीं शताब्दी के ही ठहरते हैं। __कालान्तर में कल्पतरु की बड़ी प्रसिद्धि हुई। बंगाल के सभी प्रसिद्ध लेखकों, यथा अनिरुद्ध, बल्लाल , रघुनन्दन ने कल्पतरु की चर्चाएँ की हैं और इसके लेखक लक्ष्मीधर को आदर की दृष्टि से देखा है। मिथिला में वे बंगाल से कहीं अधिक प्रसिद्ध थे। चण्डेश्वर ने अपने विवादरत्नाकर में कल्पतरु के शब्दों एवं भावनाओं को सैकड़ों बार उद्धत किया है। हरिनाथ ने अपने स्मृतिसार में और श्रीदत्त ने अपने आचारादर्श में कल्पतरु को बहुत बार उद्धृत किया है। दक्षिण एवं पश्चिम भारत में भी लक्ष्मीधर का प्रभूत प्रभाव था। हेमाद्रि एवं सरस्वतीविलास ने आदर के साथ कल्पतरु का उल्लेख किया है, यहाँ तक कि लक्ष्मीधर को उन्होंने भगवान् की उपाधि दे डाली है। जब अन्य संक्षिप्त निबन्धों का प्रणयन हो गया तभी कल्पतरु अन्धकार में छिप गया, तथापि दत्तकमीमांसा, वीरमित्रोदय तथा टोडरानन्द ने कल्पतरु की चर्चा को है। ७८. जीमूतवाहन जीमूतवाहन, शूलपाणि एवं रघुनन्दन बंगाल के धर्मशास्त्रकारों के त्रिदेव हैं। जीमूतवाहन सर्वश्रेष्ठ हैं। इनके तीन ज्ञात ग्रन्थ प्रकाशित हैं, यथा--कालविवेक, व्यवहारमातृका एवं दायभाग। ये तीनों अन्य धर्मरत्न नाम वाले एक बृहद् अन्य के तीन अंग मात्र हैं। कालविवेक में ऋतुओं, मासों, धार्मिक क्रिया-संस्कारों के कालों, मलमासों (अधिक मासों), सौर एवं चान्द्र मासों में होनेवाले उत्सवों, वेदाध्ययन के उत्सर्जन एवं उपाकर्म, अगस्त्योदय, विष्ण के सोनेवाले चार मासों, कोजागर, दुर्गोत्सव, ग्रहण आदि पर्यों एवं उत्सवों के कासों का विशद वर्णन है। जीमूतवाहन के कालविवेक में पूर्वमीमांसा के प्रमूत उल्लेख हुए हैं। इस ग्रन्थ को वाचस्पति की श्राद्धचिन्तामणि, गोविन्दचन्द्र की श्राद्धकौमुदी एवं वर्षक्रियाकौमुदी ने तथा रघुनन्दन के सत्त्वों ने स्थान-स्थान पर उद्धृत किया है। व्यवहारमातृका में व्यवहार-विधियों का वर्णन है। इसमें १८ व्यवहारपदों, प्राविवाक (न्यायाधीश) शब्द के उद्गम, प्राविवाक योग्य व्यक्तियों, विविध प्रकार के न्यायालयों, सभ्यों के कर्तव्य, व्यवहार के चार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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