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धर्मशास्त्र का इतिहास
उल्लेख है। प्रकाश का प्रणयन-काल १००० एवं ११०० ई. के मध्य में कहीं रखा जा सकता है। हेमाद्रि ने महार्णव-प्रकाश नामक एक ग्रन्थ से उद्धरण लिया है। सम्भवतः यह ग्रन्थ प्रकाश ही है।
७५. पारिजात
बहुत-से ग्रन्थों का 'पारिजात' उपनाम मिलता है, यथा---विधानपारिजात (१६२५ ई०), मदनपारिजात (१३७५ ई०) एवं प्रयोगपारिजात (१४००-१५०० ई०)। किन्तु प्राचीन निबन्धकारों ने पारिजात नामक एक स्वतन्त्र ग्रन्थ की चर्चा की है। कल्पतरु ने बहुत बार पारिजात के मतों का उल्लेख किया है। कल्पतरु तथा विवादरत्नाकर ने पारिजात एवं प्रकाश को अधिकतर उद्धत किया है। विवादरत्नाकर ने तो कल्पतरु, पारिजात, हलायुध एवं प्रकाश को महत्त्वपूर्ण पूर्वगामी कृतियां माना है। हरिनाथ के स्मृतिसार में भी पारिजात के उद्धरण आये हैं। पारिजात ने नियोग का समर्थन किया है। पारिजात व्यवहार, दान आदि विषयों पर एक स्वतन्त्र ग्रन्थ था, इसमें कोई सन्देह नहीं रह गया है। यह ११२५ ई० के पूर्व लिखा गया होगा, क्योंकि कल्पतरु ने इसका हवाला दिया ही है। यह मिताक्षरा द्वारा उद्धत नहीं है, किन्तु हलायुध, भोजदेव आदि के समान विववा के अधिकार को माननेवाला है, अत: इसकी तिथि १०००-११२५ के बीच में होनी चाहिए।
७६. गोविन्दराज गोविन्दराज ने मनु-टीका नामक अपने मनुस्मृति-भाष्य (मनु० ३.२४७-२४८) में लिखा है कि उन्होंने स्मृतिमञ्जरी नामक एक स्वतन्त्र पुस्तक भी लिखी है। इस पुस्तक के कुछ अंश आज उपलब्ध होते हैं। गोविन्दराज की जीवनी के विषय में भी उनकी कृतियों से प्रकाश मिलता है। मनुटीका एवं स्मृतिमञ्जरी में उन्हें मंगा के किनारे रहनेवाले नारायण के पुत्र माधव का पुत्र कहा गया है। कुछ लोगों ने इसी से वनारस के राजा गोविन्दचन्द्र से उनकी तुलना की है, किन्तु यह बात गलत है, क्योंकि राजा क्षत्रिय थे और गोविन्दराज थे बाह्मण। गोविन्दराज ने पुराणों, गृह्यसूत्रों, योगसूत्र आदि की चर्चा की है। उन्होंने आन्ध्र जैसे म्लेच्छ देशों में यज्ञों की मनाही की है। उन्होंने मेधातिथि की भाँति मोक्ष के लिए ज्ञान एवं कर्म का सामञ्जस्य चाहा है। कुल्लक ने मेधातिथि एवं गोविन्दराज के भाष्यों से बहत उद्धरण लिये हैं। दायभाग में गोविन्दराज की चर्चा है। गोविन्दराज की स्मृतिचन्द्रिका में धर्मशास्त्र-सम्बन्धी सारी बातें आ गयी हैं। कुल्लक ने मेधातिथि को गोविन्दराज से बहुत प्राचीन कहा है। मिताक्षरा ने मेधातिथि एवं भोजदेव का उल्लेख तो किया है, किन्तु गोविन्दराज का नहीं। इससे यह सिद्ध किया जा सकता है कि गोविन्दराज १०५० ई० के उपरान्त ही उत्पन्न हुए होंगे। अनिरुद्ध की हारलता (११६० ई०) में गोविन्दराज की चर्चा हुई है और वे विश्वरूप, मोजदेव एवं कामधेनु की भांति प्रामाणिक ठहराये गये हैं। इससे स्पष्ट है कि गोविन्दराज ११२५ ई० के बाद नहीं हो सकते। दायभाग ने गोविन्दराज के मत का खण्डन किया है। जीमूतवाहन ने भोजराज एवं विश्वरूप के साथ गोविन्दराज का भी हवाला दिया है। हेमाद्रि ने भी गोविन्दराज के मत का उद्घाटन किया है। अतः उपर्युक्त धर्मशास्त्र-कोविदों के कालों को देखते हुए कहा जा सकता है कि गोविन्दराज १०५०-१०८० ई. के मध्य में कहीं हुए होंगे। किन्तु यह बात जीमूतवाहन की १०९०-११४० वाली तिथि पर ही आधारित है और अभी तक जीमूतवाहन की तिथि के विषय में कोई निश्चितता नहीं स्थापित हो सकी है।
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