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धर्म के कार्य में निरन्तर लगना प्रिय बोलना, सत्य एवं परहितकारी वचनों का उच्चारण करना ऐसी बहुत-सी शुद्धियों का वर्णन । शिर, कण्ठ आंख और नासिका के मल को दूर करना यही सर्वाङ्गीण शुद्धि बतलाई है
ज्ञानकर्मभ्यां हरिरेवोपास्य इतिवर्णनम् : २७१७ धर्म की हानि नहीं करनी चाहिये, संग्रह हो करे । धर्म एवं अधर्म का सुख व दुःख के कारण हैं । यही सनातन धर्म शास्त्र है अन्य सब भ्रामक हैं। तथा तामस व राजम हैं, यही सात्त्विक है । वेद, पुराण एवं उपनिषदों में "इदं हेयमिदं हेयमुपादेयमिदं परम्" यही बतलाया है । साक्षात्परब्रह्म देवकी पुत्र श्री कृष्ण की आराधना सर्वोत्तम है । देब, और पशु आदि का विस्तार उन्हीं से है ।
मनुष्य
साक्षाद्ब्रह्म परं धाम सर्वकारणमव्ययम् । देवकीपुत्र एवान्ये सर्वे तत्कार्यकारिणः ।। देवा मनुष्याः पशवो मृगपक्षिसरीसृपाः । सर्वमेतज्जगद्धातुर्वासुदेवस्य विस्तृतिः ॥
ज्ञान एवं कर्म से भगवान की ही आराधना सर्वोत्तम है । वही ज्ञान है, वही सत्कर्म है एवं वही सच्छास्त्र है । जो भगवान् के चरणारविन्दों की सेवा नहीं करते हैं वे शोचनीय हैं। सात्विक राजसतामसगुणानां वर्णनम् : २७६६ प्रकृति त्रिगुणात्मिका है एवं जगत् की कारणभूता है । सम्पूर्ण संसार देव, असुर और मनुष्य इसी के विकार हैं । इस प्रकार सात्त्विक राजस और तामस गुणों का संक्षेप से वर्णन
देश शुद्धि का वर्णन जहां म्लेच्छ पाषण्डी न हो धार्मिक तथा भगवद्भक्तिपरायण मनुष्य रहते हों और हिंसक जन्तुओं से शून्य हो वह स्थान शुद्ध है
शाण्डिल्यस्मृति
भगवत्पूजनविधिवर्णनम् : २८०१
सात प्रकार की शुद्धि कर भगवत्पूजापरायण होना चाहिए । प्रथम शरीर को तपस्यादि से शुद्ध करे अशक्त हो तो दान करे और दोनों में ही असमर्थ हो तो नामसंकीर्तन करना चाहिए । उपवास, दान, भगवद्भक्तों के सेवन, संकीर्तन, जप, तप और
श्रद्धा द्वारा शुद्धि होती है
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