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प्रास्ताविक वक्तव्य
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गाथामा, ए पोते एम सूचवे छे के 'पंचमी' ना तपना प्रभावथी सौभाग्यप्राप्ति, सुकुलजन्म, व्याधिमुक्ति, प्रियसंयोग, बन्धमोचन आदि जे जे सुखो प्राणियोने, जे जे रीते मळ्यां छे ते हुं पोतानी बुद्धिना वैभव अनुसार अहिं कहीश. ए परथी एम जो कल्पना करवामां आवे के ए कथाओनी वस्तुकल्पना प्रायः महेश्वर सूरिनी पोतानी ज कल्पित करेली हशे, तो ते असंभवित नहि लेखाय.
१६ महेश्वर सूरिए प्रस्तुत ग्रन्थनी रचना करवामां जे एक विलक्षण पद्धति स्वीकारी छे ते पण ध्यान खेचे तेवी बाबत छे. आखो ग्रन्थ २००० गाथाओमा पूर्ण करवानो तेमणे प्रथम संकल्प को हतो अने तेमा १० जुदी जुदी कथाओ गुंथवानी योजना घडी काढी हती. एमांनी पहेली भने छेल्ली ए बे कथाओ बराबर ५००-५०० गाथामां भालेखवानी अने बाकीनी ८ कथाओ बराबर १२५-१२५ गाथाओमा ग्रथित करवानी परिमाणबद्धता एमणे मनमा निश्चित करी हती. स्तुतियो अने तत्त्वविषयना तो एवा केटलाक प्राचीन ग्रन्थो भारतीय साहित्यमा मळी आवे छे जेमांना जुदा जुदा विषयना अनेक प्रकरणो ५,८,१६,२०, २१, ३२, ५० के १०० जेटला नियत अने समान संख्यक श्लोको के पयोमा रचवामां आवेलां होय छे; परंतु कथाग्रन्थोमां एकसरखां नियत संख्यावाळां पयोमा जुदी जुदी वस्तुघटनावाळी कथाओनी रचना करवानी आवी कल्पना तो आ ग्रन्थमा ज जोवा मळे छे.
१७ महेश्वर सूरीनी आ कृतिना अध्ययनथी जणाय छ, के ते एक बहु ज सरस प्रतिभाशाली अने भाषाप्रभुत्ववान् कवि छे. संस्कृत अने प्राकृत बन्ने भाषाओना ते निष्णात विद्वान् छे. जो के एमना समयमा संकृत अने प्राकृत बन्ने भाषाओमा साहित्यिक रचनाओ थती हती, परंतु जैन सिवायना अन्य विद्वानो-जेओ मुख्य करीने ब्राह्मणवर्गना हता अने जेमनी संख्या घणी म्होटी हती तेओ-म्होटा भागे संस्कृत भाषाना ज विशेष मनुरागी हता अने तेथी संस्कृतमा थएली रचनाओने ज प्रायः तेओ आदरनी दृष्टिये देखता. प्राकृत भाषा तरफ तेमनी उपेक्षा अने अनादर भावना ज विशेष रहेती हती. एथी जे विद्वानोने, पोतानी रचनाओनी विद्वद्वर्गमा प्रतिष्ठा अने ख्याति थती जोवानी इच्छा रहेती, तेओ पोतानी विशिष्ट रचनाओ प्रायः संस्कृतमा ज विशेषभावे करवा प्रवृत्त थता. जेम आधुनिक भारतीय विद्वानोना मनमां, इंग्रेजी भाषानी जे वधारे महत्ता देखाय छे अने इंग्रेजीमा लखाता पुस्तकोनी जे वधारे प्रतिष्ठा अंकाय छे तेम ज पोतानी भारतीय भाषा तरफ जे उपेक्षा के लघुतावृत्ति दृष्टिगोचर थाय छे, तेम ए समयमा संस्कृत अने प्राकृत भाषा विषे ब्राह्मणादि विदग्धजनोनी मनोवृत्ति प्रवर्तती हती.
१८ ब्राह्मणोने जेम प्राकृत तरफ उपेक्षाबुद्धि के अल्पादरवृत्ति रहेती हती तेम जैनोने संस्कृत तरफ तेवा प्रकारनो कोई अनादरभाव तो हतो ज नहि; परंतु संस्कृत ए एक मात्र विशिष्ट प्रकारना रूढिप्रिय अने जातिगर्विष्ठ वर्गनी प्रिय भाषा मनाती हती अने तेना साहित्यनो उपभोक्ता प्रजानो मात्र अमुक ज स्वल्प वर्ग देखातो हतो, तेथी जनसमस्तने धर्मोपदेशद्वारा सन्मार्गमा प्रवर्ताववानी आकांक्षावाला जैन श्रमण वर्गने, तेना माटे विशेष आदरभाव न हतो. कारण के जनपदनी जीवन्त भाषा तो प्राकृत हती अने ते प्राकृत द्वारा ज बहुजनवर्ग पोतानो सर्व जीवनव्यवहार चलावतो हतो. ए जनवर्ग जे भाषाने समजी शके ते ज भाषामां जैन श्रमणो सर्वत्र पोतानो धर्मोपदेश करवान परम कर्तव्य मानता अने पुथी जैनो सदैव तत्कालीन देशभाषा प्राकृतने प्राधान्य आपता.
१९ जैन धर्मोपदेशकोनी ए चिरागत परिपाटीने अनुसरवानी दृष्टिये ज, महेश्वर सूरि पण, पोताना प्रस्तुत कथग्रन्थनी रचना प्राकृतमा करवानुं जणावे छे. ते कहे छे के 'संस्कृतमां करेली कवितानो अर्थ अल्पबुद्धिवाला समजी शकता नथी तेथी बधा जनोने सुखेथी जेनो बोध थाय ए हेतुथी आरचना प्राकृतमां करवामां आवे छे' (गाथा ३)). वळी ते कहे छे के 'जेने परनो उपकार करवानी बुद्धि होय तेणे तो ते ज भाषानो व्यवहार करवो जोईये जेनाथी बाल आदि सर्व जनोने बोध थाय' (गाथा ५). परंतु ए साथे महेश्वर सूरिने प्राकृत भाषानी कवितानी हृदयंगमतानी पण एटली ज विशिष्ट अनुभूति छे अने तेथी ते उद्घोषपूर्वक कहे छे के- 'गूढार्थ तेम ज देशी शब्दोथी रहित अने सुललित पदोथी अथित एवं रम्य प्राकृत काव्य कोना हृदयने नहिं गमे तेम छे ?? (गाथा ४). महेश्वर सूरिनुं आ कथन जेम प्रकटरूपे प्राकृत काव्यनी हृदयंगमतानुं सूचन करे छे तेम अप्रकटरूपे तेमनी पोतानी कवितानी गुणवत्तार्नु पण सूचन करे छे; अने ए सूचननी प्रतीति विज्ञ वाचकने प्रस्तुत ग्रन्थनी एवी अनेक गाथाओना पाठथी थई शकशे जेमा महेश्वर सूरिनी सुन्दर सदुक्तियो, ललित पदपंक्तियो अने वेधक भावभंगियो भरेली छे. ग्रन्थ संपादक प्राध्यापक गोपाणीये पोतानी प्रस्तावनामां ग्रन्थमांनी एवी केटलीक सरस, सुमधुर, काव्यमय अने हृदयंगम उक्तियोनो परिचय आपवानो उचित प्रयत्न कर्यो छे, तेथी ए विषे विशेष उल्लेख करवानी आवश्यकता नथी रहेती.
[जैन विद्वानोने संस्कृत भाषाना उपयोगनी भासेली आवश्यकता] २० ए तो हवे निर्विवाद रीते सिद्ध थई गयुं छे के प्राकृत भाषाना भंडारने समृद्ध करवामो सर्वश्रेय जैन श्रम णोने छे. अने जैनोनो ए भाषा तरफ उत्कट अनुराग होय ते पण स्वाभाविक ज छे. कारण के नेम ब्राह्मणोने मन संस्कृत ए देवगिरा छे तेम जैनोने मन प्राकृत ए देववाणी छे. श्रमणभगवान् ज्ञातपुत्र महावीरे पोतानो समग्र धर्मोपदेश पोतानी देश्य भाषा-जनपदीय भाषा (प्राकृत) मांज आप्यो हतो भने तेथी तेमनां ए प्रवचनोने तेमनी शिष्य
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