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________________ नाणपंचमीकहाओ सन्ततिये देशभाषा (प्राकृत) मा ज प्रथित कर्या हता. एटले ए पुरातन जैन समुदायनी आदरखुद्धि प्राकृत तरफ सविशेष होय ते स्वाभाविक छे; अने तेथी ज प्राचीन समयना मोटा भागना जैन आचार्यो, पोतानी शास्त्ररचना प्राकृत भाषामा ज करवा प्रयत्नशील थया हता. परंतु, कालपरिवर्तन थतां, गुप्तोना साम्राज्य समय दरम्यान, भारतवर्षमा संस्कृतनुं प्रभुत्व अने व्यापकत्व खूब ज वध्युं अने भारतना दक्षिणापथ अने उत्तरापथ एम बन्ने प्रदेशोमां ते एक सरखी सुप्रतिष्ठित समग्र खण्ड व्यापी राष्ट्रभाषा बनी. गुप्त राजाओना संस्कृतिप्रेमे अने औदार्यभावे, ब्राह्मणवर्गने पोताना अध्ययन-अध्यापनात्मक शिक्षणकार्यमां, अत्यंत उत्साह प्रदान कयु अने तेथी तेमणे धर्मशास्त्र, पुराण, दर्शन, व्याकरण, काव्य, नाटक, ज्योतिष, वैद्यक विगेरे सर्व विषयोना सेंकडो गवा नवा ग्रन्थोनी रचना करीने संस्कृत भाषाना भंडारने अत्यंत समृद्ध बनाव्यो. आ रीते राष्ट्रमा संस्कृतनी प्रभुता अने सार्वजनीनतानो प्रभाव वधतो जोई, जैन विद्वानोने पण एनो समादर करवो अत्यावश्यक लाग्यो अने एमणे पण प्राकृतनी साथे संस्कृतमा य पोतानुं साहित्य निर्माण करवानो उपक्रम आरंभ्यो. २१ श्वेतांबर जैन संप्रदायमा ए उपक्रमनो आरंभ करनार, घणु करीने, सौथी प्रथम उमास्वाति आचार्य थया, जेमणे जैन प्रवचनना सर्व तत्वो, सिद्धान्तो अने पारिभाषिक पदार्थोने संस्कृतनी सूत्रात्मक शैलीमा प्रथित करी, स्वोपज्ञ भाष्य साथेना 'अर्हप्रवचनैकदेश्यतत्त्वार्थाधिगम' नामना, सूत्रमन्थनी सुन्दर रचना करी. सांप्रदायिक प्रवाद तो एवो छे के तेमणे सर्व मळीने नाना मोटा ५०० प्रकरणोनी रचना करी हती; परंतु वर्तमानमां तो तेमनी अन्य एक ज 'प्रशमरति प्रकरण' नामनी उत्तम कृति उपलब्ध थाय छे जे संस्कृत आर्या छन्दोनी बनेली छे. २२ उमास्वाति पछी बीजा आचार्य सिद्धसेन दिवाकर थया जेमणे प्राकृतमा गाथाबद्ध 'सन्मतितक' नामना प्रौढतम जैन दार्शनिक ग्रन्थनी रचना करवा साथे, जैन न्यायनी परिभाषा स्थिर करवा माटे 'न्यायावतार' नामना एक संक्षिप्त प्रकरण ग्रन्थनी, तेम ज भिन्न भिन्न दार्शनिक विषयोनी चर्चा करनारी प्रौढ भावभंगी भरेली केटलीक 'द्वात्रिंशिका' नामक कृतियोनी संस्कृतमा उत्कृष्ट रचना करी.जैन ऐतिहासिक अनुश्रुतियो प्रमाणे तो, आचार्य सिद्धसेने समग्र जैन प्रवचननी संस्कृतमा अवतारणा करवानी मनोवृत्ति बतावी हती अने तेना लीधे पुराणप्रेमी स्थविरवर्ग तरफथी तेमने आक्षेपास्मक तिरस्कार पण सहन करवो पड्यो हतो, तेम ज छेवटे ते भाटे प्रायश्चित्त पण लेवू पड्यु हतुं. ए गमे तेम होय, पण ब्राह्मणोना सांस्कृतिक अने धार्मिक वर्चस्व ने कारणे, तेमनी श्रद्धापात्र अने उपास्य गिरा संस्कृतने जैनोए पण अपनाववी पडी अने प्राकृतनी साथे संस्कृतमां पण तेमणे पोतानी ग्रन्थरचना करवी शरु करी. २३ प्रारंभमां तो केटलाक दार्शनिक अने सैद्धान्तिक विचारोने आलेखता प्रकरणग्रन्थो ज संस्कृतमां रचावा शरु थया. ते पछी जूना आगमोनी व्याख्याओ संस्कृतमां रचावा लागी. महान् ग्रन्थकार आचार्य हरिभद्र सूरिये, ए बन्ने जातनी प्रवृत्तिमां, एक पुरस्कर्ता अने प्रेरक तरीके सौथी विशेष भाग भजन्यो होय एम तेमनी रचनाओ जोतां स्पष्ट जणाय छे. ते पछी अन्य अन्य आचार्योए पण, आगमोनी न्याख्याओ तेमज स्तुति-स्तोत्रादि जेवा अन्यान्य विविध बिषयनी नानी-मोटी कृतियो, संस्कृतमां रचवानो प्रयास चालू राख्यो. परंतु जैन श्रमणोने सदा अने सर्वत्र जेना वाचननी नियत आवश्यकता रहेती हती तेवा धमोपदेश माटे अति उपयोगी जणाता कथाग्रन्थो तो प्रायः प्राकृतमा ज रचाता रहा हता... २४ पादलिप्त सूरीनी तरंगवई कहा, विमलसूरिना हरिवंस अने पउमचरिय, संघदासगणिनी वसुदेवहिंडी हरिभद्रसूरिनी समराइचकहा, उद्योतनसूरिनी कुवलयमालाकहा, शीलाचार्यनुं च उपनमहापुरिसचरिय, विजयसिंहसूरिनी भुवनसुन्दरीकहा तथा नेमिनाहचरिउ विगरे प्रसिद्ध अने प्रौढ कोटिना बधा कथाग्रन्थो प्राकृतमा ज रचाया छे. २५ संस्कृत भाषामा सौथी प्रथम कथाग्रन्थ रचनार, कदाच महाकवि सिद्धर्षि छे, जेमणे पोतानी 'उपमिति भवप्रपंचा' नामनी उत्कृष्ट रूपक कथा संस्कृत गद्य-पद्यमा (वि. सं. ९६२ मां) निबद्ध करी. ए कथा पाते प्राकृतमान रचतां शामाटे संस्कृतमा रचवार्नु पसन्द करे छे, तेनो खुलासो पण तेमणे ए ग्रन्थनी आदिमां कयों छे; जे परथी ए वस्तुनो पण निर्देश मळी शाके छ के जैन विद्वानोने प्राकृत साथे संस्कृतमी पण सर्व प्रकारचें जैन साहित्य सर्जन करवानी आवश्यकता केम प्रतीत थई. महाकवि सिद्धर्षि पोतानी कथाना उपोद्घातमां कहे छे के संस्कृता प्राकृता चेति भाषे प्राधान्यमहतः । तत्रापि संस्कृता तावद् दुर्विदग्धहदि स्थिता ॥ बालानामपि सद्बोधकारिणी कर्णपेशला । तथापि प्राकृता भाषा न तेषामभिभासते॥ उपाये सति कर्तव्यं सर्वेषां चित्तरञ्जनम् । अतस्तदनुरोधेन संस्कृतेयं करिष्यते ॥ अर्थात्-संस्कृत अने प्राकृत बन्ने भाषाओ (साहित्यसर्जनमां) समान प्राधान्य भोगववा लायक छे, परंतु जे दुर्विदग्ध (विशिष्ट प्रकारना स्वग्रहथी आविष्ट) जनो छे तेमना हृदयमा संस्कृते स्थान जमावेलुं छे. प्राकृत भाषा, जे बालजनोने पण सद्बोध करावनारी होई कानने पण मधुर लागे तेवी छे, छतां, ते तेमने (दुर्विदग्ध अनोने) तेवी प्रिय नथी लागती, एटले जो उपाय होय तो बधाना चित्तनुं रंजन करवू जोईये, एवी इन्छाथी हुँ आ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002786
Book TitleGyanpanchami Katha
Original Sutra AuthorMaheshwarsuri
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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