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________________ प्रास्ताविक वक्तव्य पूर्वे, वे वर्ष उपर, तेनी रचना करी हती.' प्रवृत्ति अद्यापि मारा जोवामां आवी नथी. संभव छे के जेम ग्रन्थकारे प्रस्तुत विवरणनी अन्ते लांबी प्रशस्ति लखीने पोतानां स्थान, समय गुरुकुल आदिनो योग्य परिचय आप्यो छे, तेम ए वृत्ति = विवरणमां पण आप्यो होय अने एमां ग्रन्थकार विषे कोई विशेष ऐतिहासिक ज्ञातव्य पण नोंधाएलं होय. विद्वानोए ए वृत्तिनी शोध करवी जोईए अने उपलब्ध थाय तो तेने पण प्रकाशमां मुकवानी प्रवृत्ति करवी जोईए. __ पंथकारे पोतानी जे एक अन्य विशिष्ट रचनानो पण उल्लेख, प्रस्तुत विवरणनी प्रशस्तिमां करेलो छे ते पूर्णरूपमां मारा जोवामां नथी आवी परंतु तेनो अल्प एवो त्रुटित भाग मारा जोवामां आव्यो छे. ए रचना ते 'नेमिनाहचरियं' छे. ग्रन्थ कार कहे छे के- 'ज्यां सुधी आ जगत्मां द्वीप, समुद्र, कुलपर्वत, चन्द्र, सूर्य अने स्वर्गना देवो विद्यमान रहे त्यां सुधी आ विवरण पण, 'नेमिचरित'नी जेम प्रसार पामतुं रहो. (प्रशस्ति गाथा २७, पृ. २२९) मने लागे छे के ग्रन्थकारनी रचनाओमां ए 'नेमिचरियं' कदा च सौथी मोटी अने महत्त्वनी कृति हशे. जेसलमेरना भंडारमां, ए ग्रन्थनी ताडपत्रनी प्रतिनां थोडांक त्रुटक पानां मारा जोवामां आव्यां जेमां एक पार्नु ग्रन्थना अन्तभागवाळू पण दृष्टि गोचर थयं हतं. ए पानामां ग्रंथनी अन्तप्रशस्तिनो केटलोक पाठ मने उपलब्ध थयो छे जे आ नीचेनी पंक्तिओमां आपवामां आवे छे. (2).......णेमिकद्दासंगेणं दसार-हलि-केसवाइयाणं पि । चरियमिणं परिकहियं विमलगुण......(पं.२) (:)....."एत्थ समप्पइ एवं तिहुवणगुरुणो अरिढणेमिस्स । राइमइए तहा णवभवसुहसंगयं चरियं ॥ छ । सिरिवद्धमाणतित्थे पवढमाणम्मि जणियजयहरिसे । तियसासुरविजाहरणरिद [ देविंद ? ] णयचलणो॥ णामे ........(पं. ३) (4)..... जंबुणामु ति सीसो वोच्छिण्णाई अस्थमि एयाणि ॥ मणपरमोहिपुलाए आहारगखवगउवसमे कप्पे । संजमतिअ केवलि सिज्झाणाय जंबुम्मि वोच्छिणा ॥ तस्स वि पभवायरिओ तस्स वि सेभवो महासत्तो। संजाओ वर......(पं. ४) (:)......सीसो परिमुणियतत्तभावत्थो। जो सुअदाणकएणं से विजइ साहुभमरेहि ॥ तिविहं सामायारिं आयरमाणो तहा पगासेन्तो। अह जक्खमयहरो त्ति अ सीसो से आसि गुणरासी॥ तस्स वि तिव्वतव्वाण......(पं. ५) (6)......"तेयजंतुणासिअणाणाविदुरियसंघाओ ॥ आमोसहि विप्पोसहि जल्लोसहि विविहलद्धिसंपण्णो । जिणकपियाण चरिअं दुसमाकाले वि पयर्डतो॥ सीसो अहेसि गुणरयणभूसिओ भविअ.......(पं. ६ ) (7)......सिरिमं जयसिंहसूरिणामेणं । मंदमइणा वि रइयं एवं सिरिणेमिणो चरियं ॥ सिरिणेमिणाहचरिअं काऊण जम्मजिअं मए पुण्ण । संपावउ भवि.......(पं. ७) ग्ये ए पानानो डावी बाजुएथी लगभग एक तृतीयांश करतां वधारे भाग तुटी गएलो होवाथी, प्रशस्तिगत पाठ खंडित रूपमा ज मेळवी शकायो छे. ए जे छेल्लुं पत्र जोवामां आव्युं छे तेनो पत्रांक २३८ नो छे. पत्रनी लंबाई लगभग २६-२७ इंच जेटली होवाथी तेम ज दरेक पृष्ठ उपर ६-७ पंक्तिओ लखेली होवाथी, लगभग बारेक हजार श्लोक-ग्रन्थान जेटलो ए ग्रन्थ मोटो हशे, एम अनुमान करी शकाय छे. उक्त 'बहट्टिप्पनिका'मां ए चरितनी नोंध लेवामां नथी आवी, तेथी ते सूचीकारने तेणे अवलोकेला कोई पण प्रसिद्ध भंडारमा एनी प्रति उपलब्ध थई नहिं होय. परंतु १ जुओ, जैन साहित्य संशोधक, प्रथमभाग, द्वितीय अंक, सूचिपृष्ठ ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002785
Book TitleDharmopadeshmala Vivaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages296
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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