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प्रास्ताविक वक्तव्य
तपास करतां कोई भंडारमा ए ग्रंथ कदाच मळी पण आवे; तेथी विद्वानोए ए विषे खास लक्ष्य राखवा जेवू छे.
ग्रंथकारना विषयमां, प्रस्तुत ग्रंथनी प्रशस्तिमाथी जे काई परिचयात्मक हकीकत उपलब्ध थाय छे ते विषे, संपादक विद्वाने, पोतानी प्रस्तावनामां, यथायोग्य विवेचन कर्यु छे; तेथी वाचकोने ते विषेनी योग्य माहिती एमाथी मळी रहेशे.
प्रस्तुत ग्रन्थ जैन कथाओना संग्रहनी दृष्टिए एक प्राचीन अने प्रमुख कृतिओमांनो एक छ. एमां कहेली कथाओमा समावेश करवामां आवेलां विविध वर्णनोनी धार्मिक, व्यावहारिक, सामाजिक आदि दृष्टिए जे उपयोगिता अने विशिष्टता छे तेनो पण केट लोक निर्देश संपादक पण्डितजीए पोतानी प्रस्तावनामा योग्यरीते कर्यो छे ज. जैन कथासाहित्यनुं लक्ष्य शुं छे अने तेनुं महत्त्व कई दृष्टिए रहेलुं छे ? - ते विपे में मारा केटलाक विचारो, इतःपूर्व, प्रस्तुत ग्रन्थमालामां प्रकट थएला जिनेश्वरसूरिकृत 'कथाकोशप्रकरण', महेश्वरसूरिरचित 'ज्ञानपञ्चमी कथा' तथा उदयप्रभसूरिकृत 'धर्माभ्युदय महाकाव्य'नां 'प्रास्ताविक - वक्तव्यो'मां आलेख्या छे, तेथी ते विषे अहिं हवे विशेष कहेवा जेवू रहेतुं नथी. __ ग्रन्थना संपादक पं. श्रीलालचन्दजी जैन वाङ्मयना--- तेमां य खास करीने प्राकृत, संस्कृत अने भाषा साहित्यना - प्रौढ पंक्तिना विद्वान छे. आज सुधीमां एमणे प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, प्राचीन गूजराती आदि अनेक ग्रन्थोनुं संशोधन - संपादन आदि करीने विद्वद्वर्गमां योग्य ख्याति मेळवी छे. प्रस्तुत ग्रन्थनी प्राचीन प्रतिओ प्रायः अशुद्ध अने अपभ्रष्ट पाठबाहुल्यवाळी उपलब्ध थाय छे, तेथी जुदी जुदी ३-४ प्रतोनो आधार मेळवी ते परथी यथाशक्य शुद्ध पाठोद्धार करवामां पण्डितजीए जे विशिष्ट श्रम लीधो छे ते बदल एमने मारा अभिनन्दन छे.
प्रस्तुत ग्रन्थ उपर जे बीजी वे मोटी वृत्तिओ रचाएली छे अने जेमनो परिचय पण्डितजीए पोतानी प्रस्तावनामां आपेलो छे तेमने पण प्रसिद्धिमां मुकवानी दृष्टिए ग्रन्थमाळा तरफथी, तेमनी प्रेसकॉपिओ विगेरे थई रही छे; परंतु तेमनी प्रसिद्धि तो भाविना हाथनी वस्तु छे. आजे तो प्रस्तुत मूळ कृतिने ज वाचकोने समर्पित करी सन्तुष्ट थवा इच्छु छु. ___ ग्रन्थकारे पोते, ग्रन्थान्तमां एवी अभिलाषा प्रकट करी छे के- 'प्रस्तुत विवरणनी रचना करवाथी जे कांई कुशल कर्म में प्राप्त कर्यु होय तेना वडे, कविनी अर्थात् कर्तानी साथे ज भव्यजनो पण, ज्यां शाश्वत सुख, रहेलुं छे एवं मोक्ष प्राप्त करो'. हुं पण अन्ते तेमना ज शब्दोमां, मात्र 'विवरणनी रचना'ने बदले 'विवरणनी प्रसिद्धि' आटला फेरफार साथे, ए ज उच्च अभिलाषा प्रकट करी विरमुं छु.
पसिद्धिकरणा कुसलं जं किंचिसमजियं मए तेण ।
भव्वा लहंतु मोक्खं कइणा सह सासयं सोक्खं ॥ अक्षय तृतीया, सं. २००५ [ दिनांक १, मई, ४९] सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ
जि न वि ज य मुनि भारतीय विद्याभवन, बंबई
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