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________________ प्रस्ताव ना -46:08 १. प्रति परिचय प्रस्तुत "दिग्विजय महाकाव्य" ना संपादनमां मने वे प्रतिओ प्राप्त थई हती. एक प्रति आगराना श्री विजयधर्म - लक्ष्मी - ज्ञानमंदिरमांथी मुनिराज श्रीविद्याविजयजी महाराज द्वारा अने बीजी पूनाना भांडारकर ईन्स्टिटांथी विद्ववर्य आचार्य श्री जिनविजयजी द्वारा मळी हती. ए माटे बने विद्वानोनो आभार मानुं छं. बने प्रतिओ लगभग शुद्ध हृती अने लिपि पण सरस हती. आगरानी प्रतिमां १९ मुं पत्र नहोतुं, जेथी तेटलो भाग में पूनानी प्रति परथी लीधो छे; बाकीनो समग्र पाठ में आगरानी प्रतिने आदर्श राखीने लीधो छे. आगरानी प्रतिना हांशियामां कठिन शब्दोनां टिप्पणो आपेलां छे; ते ज टिप्पणो दिग्विजय काव्यना कठिन शब्दोना टिप्पणोवाली एक छ पानानी प्रति मने आगराना ते ज विजयधर्मलक्ष्मीज्ञानमंदिरमांथी मळी हती, तेनी साथै मळतां तां यद्यपि तेमां कर्त्तानुं नाम जणाव्युं नथी पण केवल सप्तम सर्गनां टिप्पणोनी अन्ते " इति श्री दिग्विजय काव्ये महोपाध्याय - श्रीमेघ विजयगणिकृते सप्तम सर्गविवरणम्" आ उल्लेखथी केवल सातमा सर्गनां ज नहीं परन्तु समग्र काव्यनां टिप्पणो ग्रन्थकर्त्तानां पोतानां ज होय एवं मारुं अनुमान छे. केमके शब्दालंकार जेवा कठिन शब्दोना अर्थो, कर्त्ता सिवाय आटलां स्फुट बीजा न करी शके. वळी 'देवानन्द काव्य'नुं टिप्पण कर्ताए पोते ज रचेलुं छे तेथी आ समग्र टिप्पण पण कर्त्ताए पोते ज रचेलं हशे; एम मानी में पहेला पृष्ठमां ज " ग्रन्थकारकृतानि टिप्पणानि” ए मथाळा नीचे ज अर्थो आप्या छे. तेनी नीचेनुं टिप्पण जे अंग्रेजी आंकडाओथी "संपादककृतानि टिप्पणानि" ना मथाळा नीचे आप्युं छे, ते मारुं छे. लगभग आठ सर्गे सुधी ज कर्त्तानुं टिप्पण मळी आवे छे. ते पछीना सर्गो पर हशे के केम ते जाणी शकातुं नथी परंतु पाछळता सर्गे सरळ अने तेमां काव्यदृष्टिनुं वर्णन होवाथी तेना पर टिप्पणनी जरूर नथी एम समजीने में पण टिप्पणो आपवानुं मांडी वाळ. ग्रन्थकारना टिप्पणोमां निर्दिष्ट कोशोनां स्थळो शोधीने तेना अध्याय, कांड आदि आपवा में यावत् शक्य प्रयत्न कर्यो छे अने संपादनमां पण सावधानी राखी छे छतां क्यांई अशुद्धिओ दृष्टिगोचर थाय तो विज्ञ पाठकगण सूचित करवानी कृपा करे एवी आशा राखुं छं. कविए पोतानी मोटी कृतिथी लईने यावत् नानी कृतिओमां पण पोतानी प्रशस्ति आपेली छे; ए तेमना समग्र ग्रंथोना अवलोकन परथी मालम पडे छे. ज्यारे आ विस्तृत महाकाव्यनी अंते कविए कई ज परिचय आयो नथी; एथी संभवतः आ काव्य कविनी अपूर्ण कृति हशे छतां काव्यनो अंत जोतां कई पण वर्ण्य वस्तु बाकी होय तेम जणातुं नथी. एम कहेवुं अघटित नथी के आ काव्य कविनी अंतिम कृति हशे अने तेथी पोतानो परिचय आपवानुं बाकी रही गयुं लागे छे. काव्यान्ते एक "परिशिष्ट" आप्युं छे, ते आ कविनी ज कृति छे. तेमां श्रीहीर विजयसूरिथी लईने श्री विजयप्रभसूरि सुधीनी पट्टावली आपी छे, जेमां श्रीहीरविजयसूरि, श्रीविजयसेनसूरि, श्री विजयदेवसूरि, श्री विजयसिंहसूरि अने श्रीविजयप्रभसूरिनां चरित्रोनुं वर्णन गद्यमां आपेलुं छे. आ पट्टावली श्रीधर्मसागर उपाध्याये Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002784
Book TitleDigvijaya Mahakavya
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorAmbalal P Shah
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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