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स्व० बाबू श्री बहादुर सिंह जी सिंघी
६७ ग्रंथमाळाना कार्य साथे एक प्रकारे परस्पर सहायक स्वरूपनी ज प्रवृत्ति होवाथी, मने ए पूर्व-अंगीकृत कार्यमा बाधक न थतां उलटी साधक ज जणाई अने तेथी में एमां यथाशक्ति पोतानी विशिष्ट सेवा आपवानो निर्णय को. सिंधीजीने ए बधी वस्तुस्थितिनी जाण करवामां आवतां तेओ पण भवनना कार्यमां रस धरावता थया अने एना संस्थापक-सदस्य बनी एना कार्य माटे पोतानी पूर्ण सहानुभूति प्रकट करी.
जेम में उपर जणाव्युं छे तेम, ग्रंथमाळाना विकास माटे सिंघीजीनो उत्साह अत्यंत प्रशंसनीय हतो अने तेथी हुँ पण मारा स्वास्थ्य विगेरेनी कशी दरकार राख्या वगर, ए कार्यनी प्रगति माटे सतत प्रयत्न कर्या करतो हतो. परंतु प्रन्थमाळानी व्यवस्थानो सर्व भार, मारा एकलाना पंड उपर ज आश्रित थईने रहेलो होवाथी, मारु शरीर ज्यारे ए व्यवस्था करतुं अटकी जाय, त्यारे एनी शी स्थिति थाय तेनो विचार पण मने वारंवार थयां करतो हतो. बीजी बाजु सिंधीजीनी पण उत्तरावस्था होई तेओ वारंवार अस्वस्थ थवा लाग्या हता अने तेओ पण जीवननी अस्थिरतानो आभास अनुभववा लाग्या हता. एटले ग्रन्थमाळाना भावी विषे कोई स्थिर अने सुनिश्चित योजना घडी काढवानी कल्पना हुँ कर्या करतो हतो.
भवननी स्थापना थयां पछी ३-४ वर्षमा ज एना कार्यनी विद्वानोमां सारी पेठे प्रसिद्धि अने प्रतिष्ठा जामवा लागी हती अने विविध विषना अध्ययन-अध्यापन अने साहित्यना संशोधन-संपादन- कार्य सारी पेठे आगळ वधवा लाग्युं हतुं, ए जोई सुहृदर श्रीमुंशीजीनी खास आकांक्षा थई के सिंघी जैन ग्रन्धमाळानी कार्यव्यवस्थानो संबंध जो भवन साथे जोडी देवामां आवे तो तेथी परस्पर बनेना कार्यमां सुंदर अभिवृद्धि थवा उपरांत ग्रन्थमालाने स्थायी स्थान मळशे अने भवनने विशिष्ट प्रतिष्ठानी प्राप्ति थशे: अने ए रीते भवनमां जैन शास्त्रोना अध्ययननं अने जैन साहित्यना प्रकाशन- एक अद्वितीय केन्द्र बनशे. श्रीमुंशीजीनी ए शुभाकांक्षा, ग्रन्थमाळा विषेनी मारी भावी चिंतानी योग्य निवारक लागी अने तेथी हुँ ते विषेनी योजनानो विचार करवा लाग्यो. यथावसर सिंधीजीने में श्रीमुंशीजीनी आकांक्षा अने मारी योजना सूचित करी. तेओ भा. वि. भ. ना स्थापक-सदस्य हता ज अने तदुपरान्त श्रीमुंशीजीना खास स्नेहास्पद मित्र पण हता; तेथी तेमने पण ए योजना वधावी लेवा लायक लागी. पण्डितप्रवर श्रीसुखलालजी जेओ आ ग्रन्थमाळाना आरंभथी ज अंतरंग हितचिंतक अने सक्रिय-सहायक छे तेमनी साथे पण ए योजना संबधे में उचित परामर्श कर्यो अने संवत् २००१ ना वैशाख सुदमां (मे, सन १९४३) सिंघीजी कार्यप्रसंगे मुंबई आवेला त्यारे, परस्पर निर्णीत विचार-विनिमय करी, आ ग्रन्थमाळानी प्रकाशन संबंधी सर्व व्यवस्था भवनने वाधीन करवामां आवी. सिंधीजीए, ए उपरान्त, ते अवसरे मारी प्रेरणाथी भवनने बीजा १० हजार रुपीआनी उदार रकम पण आपी जेना वडे भवनमा तेमना नामनो एक हॉल बंधाववामां आवे अने तेमां प्राचीन वस्तुओ तेम ज चित्र विगेरेनो संग्रह राखवामां आवे.
भववनी प्रबंधक समितिए सिंघीजीना आ विशिष्ट अने उदार दानना प्रतिघोषरूपे भवनमा प्रचलित 'जैन शास्त्रशिक्षण' विभागने स्थायीरूपे 'सिंघी जैन शास्त्रशिक्षा पीठ' ना नामे प्रचलित राखबानो सविशेष निर्णय को.
ग्रंथमाळाना जनक अने परिपालक सिंघीजीए, प्रारंभथी ज एनी सर्व प्रकारनी व्यवस्थानो भार मारा
'उपर मुकीने तेओ तो फक्त खास एटली ज आकांक्षा राखता हता के ग्रन्थमाळामां केम वधारे ग्रन्थो प्रकट थाय अने केम तेमनो वधारे प्रसार थाय. तेमना जीवननी एक मात्र ए ज परम अभिलाषा हती के आ ग्रन्थमाळा द्वारा जेटला बने तेटला सारा सारा अने महत्त्वना ग्रन्थो जल्दी जल्दी प्रकाशित थाय अने जैन साहित्यनो खूब प्रसार थाय. ए अंगे जेटलो खर्च थाय तेटलो ते बहु ज उत्साहथी आपवा उत्सुक हता. भवनने ग्रंथमाळा समर्पण करती वखते तेमणे मने का के-'अल्यार सुधी तो वर्षमा सरेरास ३-४ ग्रंथो प्रकट थता आव्या छे परंतु जो आप प्रकाशित करी शको तो, दरमहिने बब्बे ग्रंथो पण प्रकाशित थता जोई हुंधराउं तेम नथी. ज्यां सुधी आपनी
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