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________________ सिंघी जैन ग्रन्थ माला सिंधीजी साथेनो मारो प्रत्यक्ष परिचय सन् १९३० मां शरु थयो हतो. तेमनी इच्छा पोताना सद्गत पुण्य "श्लोक पिताना स्मारकमां जैन साहित्यनो प्रसार अने प्रकाश थाय तेवी कोई विशिष्ट संस्था स्थापन करवानो हतो. मारा जीवनना सुदीर्घकालीन सहकारी, सहचारी अने सन्मित्र पंडितप्रवर श्री सुखलालजी, जेओ बाबू श्री डालचंदजीना विशेष श्रद्धाभाजन होई श्री बहादर सिंहजी पण एमनी उपर तेटलो ज विशिष्ट सदभाव धरावता हता, एमना परामर्श अने प्रस्तावथी, तेमणे मने ए कार्यनी योजना अने व्यवस्था हाथमा लेवानी विनंति करी अने में पण पोताने अभीष्टतम प्रवृत्तिना आदर्शने अनुरूप उत्तम कोटिना साधननी प्राप्ति थती जोई तेनो सहर्ष अने सोल्लास स्वीकार कर्यो. सन् १९३१ ना प्रारंभ दिवसे, विश्ववंद्य कवीन्द्र श्री रवीन्द्रनाथ टागोरना विभूतिविहारसमा विश्वविख्यात शान्तिनिकेतनना विश्वभारती-विद्याभवनमां 'सिंघी जैन ज्ञानपीठ'नी स्थापना करी अने त्यां जैन साहित्यना अध्ययन-अध्यापन अने संशोधन-संपादन आदिनुं कार्य चालु क्यु. आ विषनी केटलीक प्राथमिक हकीकत, आ ग्रंथमाळाना सौथी प्रथम प्रकट थएला 'प्रवन्धचिन्तामणि' नामना ग्रंथनी प्रस्तावनामां में आपेली छे, तेथी तेनी अहिं पुनरुक्ति करवानी जरुर नथी. सिंघीजीए मारी प्रेरणाथी, 'सिंघी जैन ज्ञान पीठ'नी स्थापना साथे, जैन साहित्यना उत्तमोत्तम ग्रन्थरनोने आधुनिक शास्त्रीय पद्धतिए सुन्दर रीते संशोधित-संपादित करी-करावी प्रकट करवा माटे अने तेम करी जैन साहित्यनी सार्वजनिक प्रतिष्ठा स्थापित करवा माटे, आ 'सिंघी जैन ग्रन्थ माळा' प्रकट करवानी विशिष्ट योजनानो पण स्वीकार कर्यो अने ए माटे आवश्यक अने अपेक्षित अर्थव्यय करवानो उदार उत्साह प्रदर्शित कर्यो. - प्रारंभमां, शान्तिनिकेतनने लक्षीने एक ३ वर्षनो कार्यक्रम घडी काढवामां आव्यो अने ते प्रमाणे त्यां कामनो प्रारंभ करवामां आव्यो. परंतु ए ३ वर्षना अनुभवना अंते शान्तिनिकेतन मने मारा पोताना कार्य अने खास्थ्यनी दृष्टिए बराबर अनुकूळ न लागवाथी, अनिच्छाये मारे ए स्थान छोडवू पड्युं अने अमदाबादमां, गुजरात विद्यापीठना सान्निध्यमां 'अ ने कान्त विहार' बनावी त्यां आ कार्यनी प्रवृत्ति चालु राखी. आ ग्रन्थमाळामां प्रकट थएला ग्रन्थोनी उत्तम प्रशंसा, प्रसिद्धि अने प्रतिष्ठा थएली जोईने सिंघीजीनो उत्साह खूब वध्यो अने तेमणे ए अंगे जेटलो खर्च थाय तेटलो खर्च करवानी अने जेम बने तेम वधारे ग्रन्थो प्रकट थरला जोवानी पोतानी उदार मनोवृत्ति मारी आगळ वारंवार प्रकट करी. हुं पण तेमना एवा अपूर्व उत्साहथी प्रेराई यथाशक्ति आ कार्यने वधारे-ने-वधारे वेग अने विस्तार आपवा माटे प्रयत्नवान् रहेतो. सन १९३८ ना जुलाईमां, मारा परम सुहृद् श्रीयुत कन्हैयालाल माणेकलाल मुंशीनो-जेओ ते वखते मुंबईनी "काँग्रेस गवन्मेंटना गृहमंत्रीना उच्च पद पर अधिष्ठित हता-अकस्मात् एक पत्र मने मळ्यो जेमा एमणे सूचव्यु हतुं के 'सेठ मुंगालाल गोएनकाए बे लाख रुपीयानी एक उदार रकम एमने सुप्रत करी छे जेनो उपयोग भारतीयविद्याओना कोई विकासात्मक कार्य माटे करवानो छे अने ते माटे विचार-विनिमय करवा तेम ज तदुपयोगी योजना घडी काढवा अंगे मारी जरूर होवाथी मारे तरत मुंबई आवq विगेरे'. तदनुसार ई तरत मुंबई आव्यो अने अमे बन्नेए साथे बेसी ए योजनानी रूपरेखा तैयार करी; अने ते अनुसार, संवत् १९९५ नी कार्तिक सुदी पूर्णिमाना दिवसे श्री मुंशीजीना निवासस्थाने 'भारतीय विद्याभवन' नी, एक मोटा समारंभसाथे स्थापना करवामां आवी. भवनना विकास माटे श्रीमुंशीजीनो अथक उद्योग, अखंड उत्साह अने उदार आत्मभोग जोई, मने पण एना कार्यमा यथायोग्य सहकार आपवानी पूर्ण उत्कंठा थई अने हुं तेनी आंतरिक व्यवस्थामा प्रमुखपणे भाग लेवा लाग्यो. भवननी विविध प्रवृत्तिओमां साहित्य प्रकाशन संबंधी जे एक विशिष्ट प्रवृत्ति स्वीकारवामां आवी हती ते मारी आ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002784
Book TitleDigvijaya Mahakavya
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorAmbalal P Shah
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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