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________________ पडमसिरि वरिउ क्षणताओ ( Phonological Peculiarities ) मूळ अपभ्रंश भाषा - स्वरूपने लौघे नहि, परंतु लहिआनी समकालीन बोलाती भाषाने लीघे छे. ते विलक्षणताओनां सामान्य लक्षण नीचे तारवेलां छे. ते ध्यानमां लईने अमोए स्थळेस्थळे मुद्रित पाठ निश्चित कर्यो छे. आ उपरांत लिपि - विषयक विलक्षणताओ (Orthographical peculiarities) ने लीघे पण प्रतिनी वाचना अघरी बनेली छे. ते विलक्षणताओ पण अमारे मुद्रित पाठ नक्की करवा माटे ध्यानमा राखवी पडी छे. तेनां सामान्य लक्षणो कांईक आ कंडिकामां बता - वामां आव्यां छे. ४ लहिओ सामान्य कोटिनो छे. केटलीक हाथ प्रतोना लहिआ प्राकृत होता नथी एटले ते प्रतोनी वाचना शुद्ध, मरोडदार, कसाएली अने सुंदर लिपिमां लखाएली होय छे. खास करीने आ समयना जैन मरोडमां लखाएली लिपिना अभ्यास माटे वाचके मुनिश्री पुण्यविजयजी विरचित " भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कळा" (प्रकाशकः साराभाई मणिलाल नवाब, अमदाबाद ) नामे महानिबंध जोवो घटे छे. ते ग्रंथना पान ७८ उपर तेमणे लेखकनां लिपिविषयक अज्ञान के भ्रम विषे सारी रीते नोंधो आपेली छे. ते नोंधोनो अभ्यास आ प्रकारनी हाथप्रतो वांचवामां घणो सहायभूत थाय एम छे. मुनिश्री पुण्यविजयजीए 'सन्मतितर्कनुं गूजराती भाषांतर' (सं. पं. सुखलाल तथा पं. बेचरदास : गुजरात विद्यापीठ, अमदाबाद ) ना प्रवेशकमां जूनी ताडपत्रीय लिपि उपर एक लेख आपेलो छे, तेनो अभ्यास पण ताडपत्रीय प्रतोना वाचकने लाभदायी थाय तेवो छे. प्रतिनी ध्वनिविषयक लाक्षणिकताओ (अ) स्वरविभाग. ि ९१. आखी प्रतिमां (लिखित ताडपत्रीय प्रतिमां ) हखने बदले दीर्घ अने दीर्घने बदले ख लेखकनी बेदरकारीने लीघे थएला मालम पडे छे : दा. त. लेई (१/९३) पीज्जइ, कीज्जइ (१ / १०२) चींततिहि (१ / १७२) वगैरे. दीर्घने बदले हख: भासिणिए, धणसिरिए (१/१९१) परिसण ( = परीसह १/ २३०) वगेरे. तत्कालीन लोकभाषामां आ प्रकारनुं तत्त्व होवुं जोइए. तेनी असर आ जोडणी उपर देखाई आवे छे. 'स्यादौ दीर्घख ' (सि. हे. ४.३३०) ए सूत्रमां पण आ प्रकारनी असर होवानो संभव छे. तेज रीते एकवडा अक्षरने ठेकाणे बेवडा अने बेवडाने ठेकाणे एकवडा तो स्थळे स्थळे मालम पडे छे. तेनी नोंध पाठ तरीके प्रथम संधिना कडवक ९ सुधी लीघी छे; पछीथी संपादित मूळमां ते लीघेली नथी (जुओ मुद्रित पाठ पादनोंध * ) . आ प्रकारनी विपरीतता आखा ग्रंथमां अव्यवच्छिन्न रीते चालु दृष्टिगोचर थाय छे. ९२. अम्मा, कन्न इत्यादि स्थळे प्रतिमां अंमा, कॅन वगेरे छे. ९३. तृतीया विभक्तिमां हखने बदले दीर्घ सानुखार तथा निरनुखार रूपो आवे छे : दा. त. विसेसीं, नासीं, नामीं, पुतीं, किलेसीं, सहत्थीं, छंदी, संखी इ. आवां रूपो पादनोधमा उतार्यां छे अने मूळमां जोडणी रूढिशुद्ध करेली छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002783
Book TitlePaumsiri Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhahil Kavi, Jinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1948
Total Pages124
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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