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पद्मश्रीचरित २१ ए घटनाओ उपरथी ज्ञात थयुं के अपभ्रंश भाषानुं साहित्य, जेम प्रो. पिशल वगैरेनी कल्पना थई हती के लुप्त थई गयुं छे, तेम लुप्त न्होतुं थयु;
सने १९१६ ना चातुर्मासमा आ पंक्तियोना लेखकने पण वडोदरामां वसवानो प्रसंग मळ्यो. जेमना वात्सल्यभरेला अन्तेवासमा रहेवाथी मने साहित्यसेवानी साधनानो कांईक सुयोग मळ्यो, ते जैन साहित्यसमुपासक, सन्तशिरोमणि, पूज्यपाद प्रवर्तक श्री कान्तिविजयजी महाराज, तथा अनेकनभंडारोना समुद्धारक तेम ज प्रन्धरत्नोना प्रकाशक एवा तेमना मुशिष्य स्वर्गीय मुनिवर श्रीचतुरविजयजी, तथा जेमने हुं मारा परमस्नेहास्पद अने सुहृत्तम गुरुबन्धु तरीके मानतो आव्यो छु ते विद्वद्वर्य मुनि श्री पुण्य विजयजीना सान्निध्यमो, जैन भंडारोमा यत्र तत्र भरी पडेली ऐतिहासिक साधनसामग्रीने प्रकट करवानी अने तेने श्री प्रवर्तकजीनी पुनीत स्मृति तरीके प्रकाशमा मुकवानी दृष्टिये, एक ग्रंथमाळानो ('प्रवर्तककान्तिविजय जैन ऐतिहासिक प्रथमाला'ना नामे) में पण भारंभ कर्यो हतो.
भाई श्री दलाले पोतानी सीरीझ माटे राजशेखरकृत 'काव्यमीमांसा' आदि ५-७ ग्रंथो एक साथे संपादित करवा हाथमा लीधा. में पण 'विज्ञप्तित्रिवेणी' 'कृपारसकोश' आदि ४-५ ग्रंथो मारी ग्रन्थमाळा माटे तैयार करवा शरु कर्या. ते उपरान्त श्री दलालनी खास प्रेरणाथी, तेमनी सीरीझ माटे सोमप्रभाचार्यकृत 'कुमारपालप्रतिबोध' नामना म्होटा प्राकृत ग्रन्थना संपादननुं काम (जेनी मात्र एक ज संपूर्ण ताडपत्रीय प्रति पाटणना भंडारमाथी उपलब्ध थई हती) पण में हाथमा लीधुं. आम भमारा बन्नेना ग्रन्थसंपादन-कार्यनो लगभग एक साथे ज आरंभ थयो भने तेथी अमे बन्ने जण परस्पर, एक बीजाना कार्यमा ओतप्रोत जेवा थई गया हता. पोताना 'ऑफिस टाईम' सिवाय भाई दलाल सवार-सांझनो घणोखरो समय, अमारा उपाश्रयमा ज आवीने बेसता अने अमे साथे बेसीने ग्रन्थोनी नकलो तेम ज घुफो विगेरे शोधता-तपासता. ए ज वखते उक्त धनपालनी 'भविस्स. यत्त कहा' ने पण, गा. ओ. सी. मां प्रकट करवानो तेमने विचार थयो अने में तेने पुष्टि आपी. अमे बन्ने 'अपभ्रंश' भाषाना विशिष्ट अध्ययन माटे उत्सुक थया अने तेथी एना साहित्यने ते रष्टिये अवलोकवा अने अभ्यासवा उद्युक्त थया हता. में जे सोमप्रभाचार्य कृत 'कुमारपालप्रतिबोध' नामना प्राकृत ग्रन्थy संपादन कार्य स्वीकार्यु हतुं तेमां पण अपभ्रंश भाषाना केटलांक अवतरणो भने एक-बे सळंग प्रकरणो गुम्फित थएला हता.
बडोदरामो आवी रीते साहित्य - संपादननो विशिष्ट कार्यारंभ थया पछी, केटलांक कारणसर पूज्य श्री प्रवर्तकजी महाराजनो विचार मुंबइमां चातुर्मास करवानो थयो. हुं पण तेमनी चरणसेवाना लोभथी, तेमनी साथे मुंबइ आव्यो अने सन् १९१७ नो ए चातुर्मास मुंबइमां व्यतीत कों. भाई श्री दलाल साथे कार्योपयोगी पत्रव्यवहार सतत चालू ज हतो अने एक-बे वार तो तेओ प्रत्यक्षमा मुंबह आवीने मळी पण गया हता.
मुंबइना चातुर्मास पछी हुँ पू. पा. प्रवर्तकजी महाराजनी अनुमति लईने एकलो ज, पूनानी डेकन कॉलेजमा सुरक्षित राजकीय महान् प्रन्थसंग्रहने जोवानी लालसाथी पादभ्रमण करतो पूना गयो. त्यां संस्कृत प्राकृत भाषाना तेम ज भारतीय भाषाविज्ञानना उत्साही अध्येता ख. डॉ. पाण्डुरंग गुणेनो मने घनिष्ट परिचय थयो. में तेमने जैन भंडारोमां सुरक्षित अपभ्रंश भाषा-साहित्यनी विद्यमानतानो खयाल आप्यो अने तेथी तेओ पण ए साहित्यनी कृतियो अवलोकवा भने अभ्यासवा खूब उत्सुक भया. दुर्भाग्ये ए ज अरसामा भाई श्री दलालनो वर्गवास थयो भने तेमना हाथे जे केटलाक प्रन्योर्नु संगदन काम चालू हतुं ते अधुरुं रहीने अटकी पड्यु. मारी सूचनाथी, श्री दलालना हाथे अधुरं रहेलं 'भविस्सयत्तकहा'नुं संपादनकार्य, डॉ. गुणेए बहु ज उत्साहथी पूर्ण करवा इच्छा बतावी, तेथी ते वखतना, गायकवाडस् ओरिएन्टल सीरीझना मुख्य व्यवस्थापक ख. फुडालकरने तेनी सूचना आपीने में तेमना द्वारा, डॉ. गुणेने एजें संपादनकार्य अपावराव्यु.]
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