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पद्मश्रीचरित सिन्धी, हिन्दी, बंगाली आदि वर्तमान देशभाषाओमां प्रचलित स्वरूपवाळा शब्दो पण स्थाने स्थाने आपवा प्रयत्न कर्यो छे. - ९ अ० पिशले प्रकट करेला हेमचन्द्राचार्यना ए प्राकृत व्याकरणे भारतीयभाषाविज्ञानना अभ्यासियोनुं सविशेष लक्ष्य खेंच्यु. ए व्याकरणना अध्ययनथी महाराष्ट्री, मागधी, शौरसेनी, पैशाची जेवी प्राचीन अने प्रौढ साहित्यिक प्राकृत भाषाओना स्वरूपनी विस्तृत उपलब्धिनी साथे विद्वानोने अन्यत्र अप्राप्य एवी 'अपभ्रंश' भाषाना विशिष्ट ज्ञाननी पण अपूर्व प्राप्ति थई.
१. 'अपभ्रंश' एवा शब्दप्रयोगनो प्रघोष तो, एम आपणा साहित्यमां ठेठ पाणिनीय व्याकरणना महाभाष्यकार महर्षि पतंजलिना समयथी ज संभळातो आवे छे. एमना समयमां, शुद्ध संस्कृत शब्द 'गो' ना बदले जनपदीय भाषामां गावी, गोणी, गोता, गोपोतलिका आदि जेवा अनेक रूपो प्रचारमा हता-जेमने एमणे संस्कृतना शिष्ट उच्चारणनी दृष्टिये भ्रष्टोच्चारवाळा मानी 'अपभ्रंश' एवा विशेषणथी उल्लेख्या छे. परंतु, पाछळना ग्रन्थकारोए अने वैयाकरणोए जे 'अपभ्रंश' भाषानो भाषाविशेष तरीके उल्लेख को छे अने जेनी गणना साहित्यिक भाषासमूहमा करवामां आवी छे, तेनी साथे, पतंजलिकृत शब्दप्रयोगनो काई संबन्ध छे के केम ते विषे हजी कशुं चोकस जणायुं नथी. कारण के अपभ्रंश भाषानुं विशिष्ट स्वरूप दाखवती एटली प्राचीन कोई गद्य-पद्यात्मक कृति के पंक्ति हजी ज्ञात थई नथी. वररुचिना 'प्राकृतप्रकाश' मा य अपभ्रंश भाषानो निर्देश सर्वथा नथी, तेथी तेमना समयमा अपभ्रंशे पोतानुं कोई साहित्यिक वैशिष्ट्य प्राप्त कयु न तुं, एवो विद्वा. नोनो बहुमत जणाय छे. परंतु कवि भामह अने दण्डीना समयमां (६ ठा ७ मा सकामां) अपभ्रंश भाषामां, संस्कृत अने प्राकृतनी समान कोटिमां स्थान पामे ते जातनुं काव्यमय सारं साहित्य रचाएलुं विद्यमान हतुं अने तेथी तेमणे पोताना 'काव्यालंकार' अने 'काव्यादर्श' जेवा साहित्यिक मीमांसा करनारा आलंकारिक ग्रन्थोमा 'अपभ्रंश' भाषाने पण संस्कृत अने प्राकृतनी जेम ज काव्यरचनानी वाहक एक शिष्टभाषा तरीके उल्लेखी छे. अने ते पछी थएला राजशेखर, भोज वगेरे विद्वानोए तो अपभ्रंश भाषाना कवियो अने काव्यो विगेरेने लगता यथेष्ट उल्लेखो करेला छे. तेथी ए वस्तुनी कल्पना तो विद्वानोने सारी पेठे थई गई हती के प्राचीन समयमां अपभ्रंश भाषा, साहित्य पण सारी पेठे सर्जायुं हतुं. परंतु पिशलना जीवन दरम्यान (सन् १९०१ सुधी) अपभ्रंश भाषानी कोई स्वतंत्र अने विशिष्ट ग्रन्थकृति, तेना प्रकट स्वरूपमा, प्रसिद्धिमा आवी न हती; तेम ज एवी कृतियो विद्यमान हशे एनी पण कशी कोईने कल्पना थई न हती. एटले अपभ्रंश भाषासाहित्य नहिं जेवू ज विद्यमान छे, एवी धारणा पिशलनी बन्धाई हती अने तेना ज उल्लेखोना आधारे वे
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