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प्राचीन गुजराती गद्यमय अनइं हर्ष धरतउ पूछिवा लागउ "हे वत्सि ! तूं एकाकिनी इहां कांई अथवा तूं किम आवी ?" इम पूछिइ हूंतइ नमयाई आपणउ सर्व वृत्तांत कहिउं । पछई वीरदास दैवनइं उलंभा देतउ हूंतउ नर्मदासुंदरीनई संघाति लेई बब्बरकूल आविउ । तिसइ नमयासुंदरी ऊतारई मूंकी पछई वीरदास मेटि लेई राजानई मिलिया गयउ । राजाई बहुमान देई अर्थदाण मूकिउं । पछई वीरदास क्रियाणा वेचिवा लागउ ।
हिव तिहां हरिणी नामि पणांगना वसइ । पणि ते प्रवहणी लोककन्हलि सहस्र दीनार लिइ । ते लेवा भणी दासी एक वीरदासनई उतारइ मोकली । तिणि दासीई नमयासुंदरी दीठी रूपवंति । तिणि जई हरिणीनइ कहिउं "जु एहवउं रूप पृथ्वीमांहि नथी । ए जउ ताहरइ घरि आवइ तउ जाणे कल्पवेलि आवी । तीणई द्रव्यनी कोडि ऊपार्जिइं ।” पछई हरिणिइं धन मांगिवानइ मिसि तेह वीरदासनउ चरित्र जोवा भणी वली तेह जि मोकली । तिसइ वीरदासि सहस दीनार दीधा । तिसइ दासी पाछी आवी हरिणिनई कहइ "न जाणियइ वीरदासनी बहिन छइ, अथवा सगी छइ, किंवा दासी छइ । ते जाणियइ नहीं ।" तिवारई हरणी तेहनइ घरि आवी । पछई वीरदासनई बलात्कारि आपणइ घरि लेई गई । मिषांतर करी वीरदास भोलवी हाथनी वींटी नामांकित लीधी । ते लेई वली हरिणीइं दासी हाथि नमयासुंदरीकन्हई मोकली । नामांकित मुद्रा देखाडी नमयानई घरि आणी भउंहरइ लेई घाली । मुद्रिका वलि पाछी आपी । पछई अखंडव्रत वीरदास पाछउ घरि आविउ । जइ ऊतारइ जोवइ तउ नमयानई न देखइ । पछई सर्व नगर जोतउ जोतउ सासंक हरिणीनइं घरि आविउ; पूछइ जु "नमिया किहाँ ?" तिवारई ते कपटपंडिता न मानइ; कहइ "हूं स्यउं जाणउ ।" तिसइ वीरदास चीतवइ "एक कारेली अनई नीबि चडी । तिम एक वेश्या अनइं राजानउ बहुमान । तउ ए साथि न पहुचियइ । एक परदेस; बीजउं जीणइ गोपवी ते किम आपिस्यइ ।" इम घणी असमाधि कीधी । पछई आपणी वस्तु लेई घणउ लाभ ऊपार्जी पाछउ चालिउ । भरूअचि नगरि आविउ । तिहां आव्या पछई परममित्र परमश्रावक जिणदास ते आगलि सर्व वात कही । नर्मदासुंदरीनी सुद्धिनई हेति बब्बरकूल भणी आपणइ ठामि मित्र मोकलिओ।
हिव हिरणीई वीरदास चाल्या पछई नमयासुंदरीनई कहिउँ "हे सुभगि! सौभाग्यनउ निधान वेश्यापणउ आदरि । यौवननउं फल लिइ ।" ए वचन जेतलइ हरिणी कहिवा लागी तेतलइ नमयाई कान ढांकी नई कहिलं "ए वात आज पछइ म कहिसि । हूं आजन्म शीलनी खंडना नहीं करउं।" तिवारइं वेश्या कहइ “अम्हारउ जन्म सफल, जे आपणी इच्छाइं विलसउं, भोग भोगवउं ।" तेतलइ नर्मदा कहइ "इणई सुखिई संसारना सुख कउण हारवइ । जां मझनई जीवितव्य तां माहरउ शीलरत्न कुण हरी सकइ । कदापि मेरु पर्वतनी चूलिका चालइ अनई कदापि पश्चिमई सूर्य ऊगइ; पणि माहरउ शील भंग न करउं ।" पछई हरिणीइं अनेक दीन बोल बोल्या लोभ देखाडिउ । पणि तउ ही न मानइ । तिवारइं हराइं पांचसइ नाडी नमयानइं देवरावी । पणि लगारइ ते सतीनङ [मन ? ] शीलनई प्रमाणि खुभिउ नहीं । अनइ शील पणि राखिउं ।
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