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(संख्या 17) सांची में है।' इसके पूर्व का कोई स्मारक पूर्ण रूप में उपलब्ध नहीं हुआ है। गुप्तकालीन मन्दिर भीतरगाँव, देवगढ़, एरण, नचना, भुमरा, ऊँचेहरा, तिगवाँ, मढ़िया (रीठी), साँची आदि स्थानों में उपलब्ध हुए हैं। इस काल में मिट्टी
और लकड़ी आदि अस्थायी माध्यमों के स्थान पर ईंट और पत्थर के स्थायी माध्यम स्वीकार किये गये।
मन्दिरों में सौन्दर्य की ओर अधिक ध्यान दिया गया। द्वारस्तम्भों को मंगलघट, कल्पवृक्ष, युगल-छवि और पत्रावली आदि के द्वारा अलंकृत किया जाने लगा। गंगा-यमुना के अंकन का व्यापक प्रचार भी इसी समय हुआ। तोरण के मध्य, मन्दिर से सम्बद्ध देव की मूर्ति उत्कीर्ण की जाने लगी। गर्भगृह की छत भीतर से सपाट होती थी और उसके ऊपर लघु-शिखर का निर्माण होता था। देवगढ़, भीतरगाँव और साँची में गुप्तकालीन शिखर का अविकसित रूप दर्शनीय है।
इस काल के उत्तरार्ध में मन्दिर स्थापत्य पर्याप्त विकसित हो गया। शिखर का रूप इतना परिवर्तित और विशिष्ट हो गया कि वह गुर्जर-प्रतिहारकालीन तथा चन्देलकालीन शिखर का पूर्वरूप प्रतीत होता है। बाह्य भित्तियों पर मूर्तियों आदि के अंकन तथा प्रदक्षिणा-पथ का अलंकरण भी प्रारम्भ हुआ। सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि इस युग के मन्दिर की यह थी कि उसके साथ मण्डप भी निर्मित होने लगा।' यह मण्डप प्रवेश-द्वार के सामने स्तम्भों पर आधारित छत के रूप में मिलता है। नचना आदि के कुछ मन्दिरों में विभिन्न देवों, यक्षों, गन्धर्वो और अप्सराओं तथा अर्धमानवाकृति किन्नर एवं सुपर्ण आदि के अंकन भी उत्तर गुप्तकाल की विशेषता
है।
(इ) गुप्तोत्तर काल और उसकी चार शैलियाँ
विवेच्यकाल (ई. 600 के पश्चात्) में, उत्तर-भारत में 'नागर शैली' का विशेष रूप से उत्थान हुआ। शिखर के अलंकरण पर अधिकाधिक बल दिया गया। परन्तु मन्दिर-स्थापत्य के शेष सभी तत्त्व किंचित् परिवर्तन के साथ वही चलते रहे, जो
1. सर जॉन मार्शल आदि : दी मानुमेण्ट्स ऑफ साँची, जिल्द एक, पृ. 57 तथा जिल्द तीन, फलक
(NIVI (व) ए. के. कुमारस्वामी : हिस्ट्री ऑफ इण्डियन आर्ट (लिपजिग, 1926 ई.), पृ. 78 तथा आकृति 15।। (स) प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी : भारतीय संस्कृति में मध्य प्रदेश का योग,
पृ. 1061 2. वी. एन. लूनिया : प्राचीन भारतीय संस्कृति, पृ. 642 । 3. प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी : भारतीय संस्कृति में मध्य प्रदेश का योग, पृ. 126-271 4. (अ) वी. एन. लूनिया : प्राचीन भारतीय संस्कृति, पृ. 643 । (ब) डॉ. सत्यनारायण दुबे : प्राचीन
भारत का इतिहास (आगरा, 1967 ई.), पृ. 266 ।
स्थापत्य :: 95
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