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नगरी में वासुदेव के मन्दिर (मौर्य - शुंग काल ) बनाये गये। इनमें से एक के साथ नारायण नाम की वाटिका भी निर्मित हुई थी। कुछ समय पूर्व विदिशा में की गयी खुदाई से ई. पू. 200 में निर्मित विष्णुमन्दिर के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इस मन्दिर के सामने यूनानी राजा अन्तलिकित के राजदूत हेलियोदर ने गरुडध्वज की स्थापना करायी थी ।
(ब) शक - सातवाहन काल
शक- सातवाहन काल (ई. पू. 100 से 200 ई.) में मन्दिरों का निर्माण और भी अधिक संख्या में हुआ । इस समय के औदुम्बर, कुणिन्द और आर्जुनायन गणों की मुद्राओं पर जिस प्रकार देवों का विशेष चिह्न बनाया जाता था उसी प्रकार का चिह्न मन्दिरों, उनके स्तम्भों तथा ध्वजाओं पर भी बनाया जाने लगा । उदाहरण के लिए जैन मन्दिरों में तीर्थंकर की मूर्ति और शैव मन्दिरों में त्रिशूल तथा परशु के चिह्न उत्कीर्ण हुए। इस काल में प्रदक्षिणा - पथ का निर्माण विशेष रूप से प्रचलित हुआ । प्रदक्षिणापथ प्रायः काष्ठनिर्मित वेष्टनी के रूप में निर्मित होते थे, जिन्हें कुषाण- शासकों ने पाषाण से निर्मित कर प्रशस्त रूप दिया ।
(स) कुषाणकाल
कुषाण शासकों ने मन्दिरों के साथ ही साथ देवकुलों को भी बहुत महत्त्व दिया । देवकुल वह भवन होता था, जिसमें मृत राजा की मूर्ति प्रतिष्ठापित होती थी। इस प्रकार एक ही देवकुल में अनेक परम्परागत राजाओं की मूर्तियाँ स्थापित हो जाया करती थीं । कुषाण काल में मथुरा, अहिच्छत्रा, कौशाम्बी, काम्पिल्य और हस्तिनापुर अच्छे जैन - केन्द्र माने जाते थे । उत्तर प्रदेश, बिहार और उड़ीसा में भी जैन धर्म के प्रारम्भिक केन्द्र थे । यहाँ अनेक जैन मन्दिर निर्मित हुए थे ।
(द) गुप्तकाल
गुप्तकाल (ई. चौथी से छठी शती) से पूर्व निर्मित प्राचीनतम उपलब्ध मन्दिर
1. प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी : भारतीय संस्कृति में मध्यप्रदेश का योग (इलाहाबाद, 1967), पृ. 1241
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2. विस्तार के लिए दे. - बी. एन. लूनिया प्राचीन भारतीय संस्कृति ( आगरा, 1966), पृ. 5651 3. प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी कला का इतिहास, हिन्दी साहित्य, जिल्द दो (प्रयाग), 1962 ई., पृ. 228।
94 :: देवगढ़ की जैन कला एक सांस्कृतिक अध्ययन
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