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(ब) कैलास : शिखर-संरचना का प्रेरक
भक्त जानते थे कि उनका एक उपास्य देव कैलास पर भी निवास करता है। उस तक पहुंचने में असमर्थ भक्तों ने कैलास की भी रचना का सूत्रपात किया। यह परिकल्पना भी मन्दिर-स्थापत्य का सूत्रपात कही जा सकती है।
सुमेरु और कैलास की अनुकृतियों का एक मुख्य अंग शिखर भी माना गया। प्राचीन भारत में इसे विशेष मान्यता दी गयी।
(स) मुद्राओं पर अंकित मन्दिर आकृतियाँ
ई. पू. 5वीं-4थी शती के सिक्कों पर भी शिखराकृतियाँ अंकित मिलती हैं। कुछ आहत मुद्राओं पर मन्दिरों का प्रारम्भिक रूप देखने को मिलता है। ई. पू. द्वितीय तथा प्रथम शती की मुद्राओं के अतिरिक्त अनेक मूर्तियों पर भी मन्दिर-आकृतियाँ उत्कीर्ण की गयी थीं।
(द) वेदिकाओं पर अंकित मन्दिर आकृतियाँ
मथुरा की वेदिकाओं पर अंकित मन्दिराकृतियों से उत्तर भारत के मन्दिरों के प्रारम्भिक रूप का ज्ञान होता है।
(इ) प्राचीन मन्दिर-स्थापत्य की दो विशेषताएँ
ई. प. द्वितीय-प्रथम शताब्दी के मन्दिरों की दो विशेषताएँ वेदिका और शिखर हैं। वेदिका जिसे वेष्टनी (बाड़) भी कहते हैं, प्रारम्भ में पवित्र-वृक्षों के चारों ओर बनायी जाती थी। ग्रामों और नगरों की रक्षा भी वेष्टनी द्वारा की जाती थी, जिसकी संज्ञा 'प्राचीर' हई। महावीर का जिन यक्षायतनों में रुकने का उल्लेख मिलता है, वे किसी वृक्ष के नीचे होते थे और उन्हें वेष्टनी द्वारा परिवेष्टित कर दिया जाता था। मन्दिरों की छत पर सादे शिखर का निर्माण करके सुमेरु और कैलाश की भाँति उच्चता, उज्ज्वलता और शान्ति की अपूर्व सृष्टि की जाती थी।
1. द्रष्टव्य-एलन : केटलाग ऑफ क्वाइंस ऑफ एंश्येण्ट इण्डिया इन दी ब्रिटिश म्युजियम (लन्दन, ___1936), भूमिका तथा पृ. 297-306 । 2. प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी : भारतीय कला में भगवान् महावीर, सन्मति सन्देश (दिल्ली, मई 1961),
पृ. 361
92 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन
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