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स्थापत्य
1. मन्दिर-वास्तु का उद्भव
(अ) सुमेरु : मन्दिर-स्थापत्य का आधार स्रोत भारत धर्मप्रधान देश है। धार्मिक तृप्ति के लिए अपनाये गये साधनों में अभीष्ट देव के निवास की कल्पना भी थी। सुमेरु के नाम से एक ऐसे पर्वत की कल्पना की गयी, जो लौकिक पर्वतों से आकार-प्रकार में सर्वथा भिन्न था। सुमेरु पर स्वर्गीय सुविधाएँ और वातावरण था। उसके बीच अभीष्ट देव का निवास था। परन्तु भक्त अपने वर्तमान जन्म में वहाँ तक पहुँच नहीं सकता था जबकि उसे अपने उपास्य का दर्शन क्षण-क्षण अनिवार्य प्रतीत होता गया। अतः उसने स्वयं सुमेरु की रचना करने की ठानी, जिस पर अवतीर्ण होकर उसका उपास्य विराजमान होता। सुमेरु' की कल्पना के साथ ही मन्दिर स्थापत्य का उपक्रम हुआ।
1. सुमेरु की पहचान के विषय में विद्वानों के अनेक मत हैं। सुमेरु एक ऐसा विशिष्ट पर्वत है, जहाँ
से पर्वत श्रेणियाँ निकलकर चारों दिशाओं में फैलती हैं। परिणामस्वरूप अनेक विद्वानों ने इसे पामीर पर्वत का ही प्रतिनिधि माना है। अनेक विद्वान् इसका अभिज्ञान हिमालय की विभिन्न चोटियों से करते हैं। किन्तु डॉ. आर. जी. हर्षे इसकी स्थिति अलताई पर्वत के क्षेत्र में मानते हैं, (मेरु होमलेण्ड ऑफ दी आरियंस, विश्वेश्वरानन्द भारत-भारती (होशियारपुर, 1974), लेखमाला 109)। यह अलताई पर्वत-श्रेणी एशिया के मानचित्र में पश्चिमी साइबेरिया तथा मंगोलिया में स्थित है। डॉ. बलदेव उपाध्याय पश्चिमी साइबेरिया में स्थित अलताई पर्वत को सुमेरु मानते प्रतीत होते हैं (पुराण विमर्श (बनारस, 1965), पृ. 320)। प्रो. सैयद मुजफ्फर अली ने अनेक तकों ओर प्रमाणों के साथ मध्य एशिया में स्थित पामीर पर्वत को सुमेरु प्रमाणित किया है (दी जाग्रफी आफ दी पुराणस् (नयी दिल्ली, 1966), पृ. 47-52 तथा आकृति 2 और 4)।
स्थापत्य :: 91
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