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इन स्तम्भों को ‘सती का चौरा' कहा जाता है। ऐसे स्तम्भों पर सूर्य और चन्द्रमा के मध्य में हाथ का अग्रभाग (पंजा) अंकित है तथा नागरी लिपि में सम्बन्धित अभिलेख भी उत्कीर्ण हैं। कुछ सती-स्तम्भों के स्थापना-काल इस प्रकार हैं-संवत् 1670, 1686, 1688, 1692, 1695, 1709, 1710, 1716, 1731, 1732, 18....., 18761
उपसंहार
इस अध्याय में विवेचित स्मारकों के सर्वेक्षण से कुछ महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकलते हैं :
1. लगभग सोलह सौ वर्षों की दीर्घ अवधि में निर्मित होते रहने से इन स्मारकों की विन्यास-रेखा आदि में समानता नहीं आ सकी है। उसका स्थितिक्रम भी किसी सरल या सुनियोजित रेखा में नहीं है।
2. इसी प्रकार उनके अंगों और उपांगों की संरचना में भी किसी निश्चित सिद्धान्त का निर्वाह नहीं हो सका है।
3. कुछ मन्दिर, शास्त्रीय विधान के विरुद्ध दक्षिण-मुख भी हैं।
4. ऐसे स्मारक गिने-चुने ही अवशिष्ट हैं जिनका मौलिक तथा सम्पूर्ण रूप अब भी विद्यमान है।
5. कुछ स्मारक पूर्णरूपेण भूमिसात् हो गये हैं, केवल भग्न अधिष्ठान आदि से ही उनके अस्तित्व का अनुमान होता है।
6. कुछ स्मारक अंशतः ध्वस्त हुए हैं जिनमें मन्दिर संख्या तीन उल्लेखनीय है जिसके दो तलों में से एक ही अवशिष्ट है।
7. जीर्णोद्धार यहाँ कई बार हुआ है पर सन्तोष की बात यह है कि जीर्णोद्धार-कर्ताओं ने स्मारकों की मौलिकता को सुरक्षित रखने की ओर पर्याप्त ध्यान दिया है। यह अवश्य है कि उन्होंने पूर्णतः ध्वस्त स्मारकों की सामग्री का उपयोग अन्य स्मारकों के जीर्णोद्धार में कर लिया है।
8. सूक्ष्म सर्वेक्षण से ज्ञात होता है कि मानस्तम्भ जैसे कुछ स्मारक स्थानान्तरित भी किये गये हैं।
9. कुछ स्मारक भट्टारकों के निवास और समाधि के रूप में भी निर्मित हुए थे जिन्हें कालान्तर में मन्दिरों का रूप दे दिया गया।
10. प्रस्तुत सर्वेक्षण में यह स्मरणीय है कि पैमाइश का कार्य सर्वप्रथम किया गया है। श्री कनिंघम ने कुछ मन्दिरों की पैमाइश की थी, पर उसमें कहीं-कहीं त्रुटियाँ पायी गयी हैं। श्री साहनी के निर्देशन में भी कुछ सर्वेक्षण हुआ था, पर वह नगण्य
90 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन
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