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गुप्ता-मन्दिर' और सागर-मठ' भी कहते हैं।
__ अधिष्ठान पर मन्दिर नौ वर्गों में विभक्त था जिनके मध्य गर्भगृह था। अधिष्ठान, जिसका उत्खनन राय बहादुर दयाराम साहनी ने कराया, के प्रत्येक कोने पर एक वर्गाकृति मन्दिर था। इससे प्रतीत होता है कि मध्य भाग (गर्भगृह) सहित दशावतार मन्दिर उत्तर भारत में प्रचलित पंचायतन शैली का सबसे प्राचीन मन्दिर है।
अधिष्ठान अब अधिकांशतः नष्ट हो चुका है। उस पर सीढ़ियों से पहुँचा जाता है। 55 फुट 6 इंच के इस अधिष्ठान के प्रत्येक कोने पर ग्यारह फुट के वर्गाकार मन्दिर थे जिनके अब अवशेष भी उपलब्ध नहीं हैं।
गर्भगृह अठारह फुट छह इंच वर्गाकार है। पश्चिम की ओर प्रवेश द्वार और शेष तीनों ओर एक-एक चौड़ा मूर्ति-पट्ट है जो एक गहरी देवकुलिका में जड़ा है।
गर्भगृह के प्रवेश-द्वार की चौखट (11 फुट 2 इंच x 10 फुट 9 इंच) के चार मूर्तिखचित पहलू हैं। और सबसे ऊपर दिये हुए सिंहमुख इनके अतिरिक्त हैं। प्रत्येक पहलू पर नीचे एक खड़ी हुई मूर्ति है।
प्रथम पंक्ति में मुख्य बात जो लक्ष्य की जानी चाहिए वह यह है कि नचना की तरह गंगा-यमुना का स्थान यहाँ भी द्वार के सिरदल पर बड़े अभिनन्दनीय ढंग से प्रदर्शित किया गया है। पत्रावली तथा वल्लरियों की सज्जा में से उभरते हुए मकर
और कुम्भ अपनी स्वाभाविक सुषमा को घोषित कर रहे हैं। यहाँ गंगा-यमुना की सानुपात सुन्दर मूर्तियाँ छत्र के नीचे दिखाई गयी हैं। वल्लरियों वाली यह सज्जा-पंक्ति अपने आधार, नीचे अंकित कीचकों के शिर का भार बन रही है।
द्वितीय सज्जा पंक्ति का प्रारम्भ करती हुई दो सुन्दर यक्षी मूर्तियाँ अंकित हैं, जिनके घुटने के नीचे तक दिखाया गया वस्त्र, दोनों बाहुओं पर से झूलता उत्तरीय, भामण्डल के आकार का केश-संयोजन, कुण्डल, रत्नहार, मोहनमाला, बाजूबन्द, वलय, कटि, किंकिणी और पायल सुन्दरता से यथास्थान विभूषित हैं।
यही वेश-विन्यास प्रायः सभी यक्षी मूर्तियों और गंगा-यमुना का भी है, किन्तु इन सभी की केश-सज्जा विभिन्न प्रकार की है।
तृतीय पंक्ति में केवल नृत्य करते हुए यक्ष और गण अंकित हैं और ऊपर कीर्तिमुखों का अंकन है।
चतुर्थ पंक्ति का प्रारम्भ एक सुन्दर यक्ष दम्पती के अंकन से हुआ है। यह युग्म अपने अनिन्द्य सौन्दर्य, केश-सज्जा और विविध वस्त्रालंकारों के कारण सचमुच ही अद्वितीय बन पड़ा है। इसके ऊपर छह कोष्ठकों में क्रमशः गणों और केलिरत
1. (अ) कनिंघम : ए. एस. आर., जि. 10, पृ. 105 । (ब) दयाराम साहनी : ए. पी. आर., 1918,
पृ. 7। 2. तालाब के किनारे का मठ या मन्दिर। इस नाम की प्रसिद्धि स्थानीय स्तर पर है।
88 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन
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