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________________ इस मन्दिर को आच्छादित किये हुए सघन वन की सफाई करायी, विशाल वृक्षों को कटवाया तथा उत्खनन और सर्वेक्षण कार्य सम्पन्न कराया, के मतानुसार इसका वर्तमान अधिष्ठान मन्दिर के जीवनकाल में ही कम से कम दो बार बन चुका था। इस मन्दिर का निर्माण यहाँ के दशावतार मन्दिर के पश्चात् हुआ। उपलब्ध शिल्प-वैभव, मूर्तियों तथा अन्य सामग्री के आधार पर यह निःसन्देह रूप से कहा जा सकता है कि यह दशावतार मन्दिर का अनुकरण था। श्री हरग्रीब्ज, डॉ. स्पूनर और श्री साहनी का भी यही मत है। इस मन्दिर के विध्वंस-काल के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता। तथापि यह निश्चित है कि संवत् 1550 तक यह मन्दिर अच्छी स्थिति में था क्योंकि इसी मन्दिर के गर्भगृह की दीवारों में संवत् 1550 के दो अभिलेख नागरी लिपि में उत्कीर्ण, प्राप्त हुए हैं। मन्दिर के निर्माण में लाल-बलुआ पत्थर का उपयोग हुआ है। प्रवेश-द्वार अत्यन्त छोटा है। इसकी ऊँचाई चार फुट और चौड़ाई कुल सत्रह इंच है। इतने छोटे प्रवेश-द्वार से प्राचीन भारत की कदाचित् इस मान्यता की पुष्टि होती है कि मन्दिर में इष्ट देवता के समक्ष उपस्थित होने के पूर्व ही दर्शनार्थी को विनम्र होना चाहिए। पूर्वाभिमुख इस मन्दिर की मुख्यमूर्ति भगवान् विष्णु के वराहावतार की है। यद्यपि वह खण्डित है तथापि अपने समृद्ध कलावैभव और आकर्षक भव्य रूप को अभिव्यक्त करती है। वराहावतार का सम्पूर्ण दृश्य अपने परिकर के साथ अत्यन्त कुशलता से उत्कीर्ण किया गया है। यह मूर्ति इसके ‘वराह मन्दिर' नाम को सार्थक करती है। ___ मुख्य मूर्ति के पीछे टिके हुए शिलापट्ट पर 'गजेन्द्र मोक्ष' का दृश्य अत्यन्त सुन्दरता से अंकित है। इसके निकट ही एक अन्य शिलापट्ट पर हिमालय पर तपस्यारत नर-नारायण की अत्यन्त मनोरम मूर्ति विद्यमान है। दक्षिण में टिके हुए एक शिलापट्ट पर शेषशायी विष्णु का प्रभावोत्पादक अंकन है। इसी के निकट एक अन्य शिलापट्ट पर पाँच पाण्डव तथा द्रौपदी की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। उत्तर में विद्यमान एक शिलापट्ट पर चक्र, गदा आदि उपकरणों से विभूषित भगवान् विष्णु की एक सुन्दर मूर्ति का अंकन हुआ है। (द) दशावतार मन्दिर देवगढ़ के जैनेतर स्मारकों में सर्वोत्तम कृति 'दशावतार मन्दिर' है। पर्वत की पश्चिमी उपत्यका पर ग्राम के उत्तर में स्थित इस गुप्तकालीन खण्डित मन्दिर को स्मारक :: 87 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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