________________
'हाथी-दरवाजा' कहते हैं। अनुमान है कि इस द्वार से हाथियों का आवागमन दुर्ग में होता था। बेतवा का प्रवाह इसके पार्श्व भाग में होने से यह भी सम्भव है कि हाथी इस द्वार से पानी पीने ले जाये जाते हों अतः इसका नाम 'हाथी-दरवाजा' पड़ा हो।
इस विशाल द्वार के ऊपर मध्य में लगभग 3 फुट 4 इंच ऊँचा और 3 फुट चौड़ा एक गवाक्ष है। इसकी उपयोगिता का केवल अनुमान ही किया जा सकता है। कदाचित् उसमें कोई मूर्ति विद्यमान रही हो। वह मूर्ति या तो इस दुर्ग के निर्माता शासक की हो या उसके इष्ट-देव की। वर्तमान में मात्र गवाक्ष अवशिष्ट
है।
इस द्वार में भीतर की ओर बायें पक्ष पर 8 फुट की ऊँचाई पर 1 फुट 7 इंच लम्बा, 1 फुट 7 इंच चौड़ा और 2 फुट 4 इंच ऊँचा एक शिलापट्ट समाविष्ट है, जिसमें भीतर की ओर उपाध्याय परमेष्ठी का अंकन है, जिनके हाथ की पोथी का खण्डित अंश दर्शनीय है। उनके दोनों ओर एक-एक साधु अंजलिवद्ध कायोत्सर्गासन में उत्कीर्ण हैं, इन दोनों के हाथों में पीछी स्पष्ट देखी जा सकती है। उपाध्याय के ठीक ऊपर पद्मासन में एक तीर्थंकर और उनके भी दोनों ओर कायोत्सर्गासन में एक-एक तीर्थंकर (सभी बहुत छोटी आकृति में) प्रदर्शित हैं। तीर्थंकर का परिकर यहाँ अवश्य रहा होगा, जिसे बहुत ही महत्त्व का माना जाना चाहिए, क्योंकि वर्तमान स्थिति से यह कहा जा सकता है कि इस परिकर को किसी मूर्ति-भंजक ने सूक्ष्मता के साथ काट लिया है।
इसके पार्श्व में पश्चिम की ही भाँति एक स्तम्भयुक्त देवकुलिका है, इसमें पद्मासन में एक तीर्थंकर मूर्ति दर्शनीय है। इसका मुख-मण्डल खण्डित होने पर भी ध्यान-मुद्रा के द्वारा शान्ति बिखेर रहा है। इसके कन्धों पर जटाएँ छिटकी हुई हैं। लम्बा श्रीवत्स इसका निर्माण काल 12वीं शती सूचित करता है। अष्ट प्रातिहार्य का अंकन अत्यन्त परिपूर्ण और स्पष्ट बन पड़ा है। देवकुलिका के स्तम्भों के ऊपरी भाग में दोनों ओर स्तम्भ-शीर्ष तथा नीचे चौकी पर दोनों ओर पद्मासन में एक-एक तीर्थंकर का अंकन है। सम्भावना है कि यह शिलापट्ट जीर्णोद्धार के समय कहीं से लाकर समाविष्ट कर दिया गया है। यदि ऐसा है तो यह किसी स्तम्भ या मानस्तम्भ का शीर्ष होना चाहिए और उस स्थिति में प्राचीर में चिने हुए इसके दो बाजुओं में भी इसी प्रकार की दो देवकुलिकाएँ और होना चाहिए।
'हाथी-दरवाजा' के भीतर दायीं ओर (बायीं ओर की ही भाँति) सतह से 7
1. सन् 1917-18 ई. में भी इसे 'हाथी-दरवाजा' कहा जाता था। दे.-डॉ. डी. वी. स्पूनर : ए.
आर., ए. एस. आइ., 1917-18, भाग एक (कलकत्ता, 1920 ई.), पृ. 7।
82 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org