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________________ किंवदन्तियाँ 'देवगढ़' नामकरण के सम्बन्ध में इस प्रान्त में प्रचलित किंवदन्तियाँ भी विचारणीय हैं। एक बहुप्रचलित किंवदन्ती निम्न प्रकार है : प्राचीन काल में इस नगर में देवपत और खेवपत नाम के दो भाई निवास करते थे। सौभाग्य से उन्हें 'पारस-पत्थर' उपलब्ध था। इसके कारण वे अत्यन्त वैभव-सम्पन्न हो गये थे। अपनी अपार धन-राशि का उपयोग इन दोनों ने यहाँ भव्य जैन-देवालय बनवाने, नगर एवं दुर्ग के सौन्दर्य को बढ़ाने में किया। तत्कालीन राजा इन भाइयों से उक्त पारस-पत्थर प्राप्त करना चाहता था, किन्तु देवपत ने उसके हाथ में जाने के पूर्व ही यह 'पारस-पत्थर' बेतवा नदी के अथाह जल में प्रवाहित कर दिया। परम्परा से देवगढ़ के सम्बन्ध में यह किंवदन्ती प्रचलित है कि इस स्थान के निर्माता उक्त 'देवपत' के कारण ही यह स्थान 'देवगढ़' कहलाता है। एक दूसरी किंवदन्ती के अनुसार इस स्थान की रचना देवों द्वारा की गयी है तथा उनकी सूक्ष्म-कला की स्मृति के रूप में इसे 'देवगढ़' कहा जाता है। इस सन्दर्भ में हम मथुरा के उत्खनन में प्राप्त ईसा की द्वितीय शताब्दी के अभिलेख से तुलना करना चाहेंगे। मथुरा के उक्त अभिलेख में वहाँ के जैन स्तूप को 'देव-निर्मित' कहा गया है। कदाचित् कला की अत्यन्त भव्यता और सूक्ष्मता के कारण उस स्तूप को ‘देव-निर्मित' कहा गया हो। देवगढ़ के सम्बन्ध में प्रचलित इस किंवदन्ती का आधार भी कला की भव्यता, सूक्ष्मता और प्रचुरता प्रतीत होती है। शोधकर्ता का मत यद्यपि यह स्थान किसी तीर्थंकर की कल्याणक-भूमि अथवा किसी शलाका-पुरुप से सम्बद्ध नहीं है तथापि यहाँ अनेक साधुओं और साध्वियों ने घोर तपश्चरण करके 1. (अ) जिनप्रभसूरि : विविध तीर्थकल्प, पृ. 17 और 85। (ब) वी. स्मिथ : जैन स्तूप एण्ड अदर पण्टिक्विटीज़ फ्राम मथुरा (इलाहाबाद, 1901 ई.), सम्पूर्ण। (स) प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी : मथुरा का देवनिर्मित वौद्धस्तूप : श्री महावीर स्मृति ग्रन्थ, खण्ड 1 (1948-49 ई.), पृ. 188-011 (द) नीलकण्ठ पुरुपोत्तम जोशी : मथुरा की मूर्तिकला (मथुरा, 1965 ई.), पृ. । तथा 183-87 ! (इ) डॉ. हीरालाल जैन : भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान (भोपाल, 1962 ई.), पृ. 303 । (इं.) डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल : मथुरापुरीकल्प, चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्थ (आरा, 1951 ई.), पृ. 397-4021 (उ) प्रो. भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु' : भारतीय संस्कृति में जैनतीर्थो का योगदान (अलीगंज, 1961 ई.), पृ. 16 तथा 181 9. प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी : कंकाली टीला (मथुरा) की जैन कला का अनुशीलन, गुरु गोपालदास वरेया स्मृति ग्रन्थ (सागर, 1967 ई.), पृ. 608 | पृष्ठभूमि :: 31 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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