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प्रतिहारवंशी राजाओं के अधीन था।' इसी वंश के शासक श्रीभोजदेव के समय के एक अभिलेख में इस स्थान का उल्लेख 'लुअच्छगिरि' नाम से हुआ है।'
सम्भावनाएँ
सम्भावना की जाती है कि गुप्तवंशीय शासकों के उपरान्त और गुर्जर-प्रतिहार शासकों के पूर्व जिस वंश का शासन और अधिकार इस नगर पर रहा हो तथा जिसने पर्वत पर देवायतन बनवाये हों, उसका अपना वंश 'देववंश' हो। इस शासक ने अपने वंश की प्रसिद्धि हेतु इस स्थान को 'देवगढ़' नाम से प्रसिद्ध किया हो।
दूसरी सम्भावना यह भी है कि विक्रम संवत् 918 (862 ई.) के अभिलेख में उस स्तम्भ के प्रतिष्ठापक आचार्य कमलदेव के शिष्य श्रीदेव हैं। कदाचित् वह देव-वंश के होंगे। उनका व्यक्तित्व प्रभावशाली था और उन्होंने इस स्थान पर भट्टारक-गद्दी की स्थापना की थी। अतः यह सम्भावना स्वाभाविक है कि आचार्य श्रीदेव के स्वयं के नाम के कारण अथवा उनके संघ के नाम के कारण उनके भक्तों और अनुयायियों ने इस स्थान को 'देवगढ़' नाम से प्रसिद्ध किया हो।
'देव' शब्द देवता का वाची है। ‘गढ़' का अर्थ दुर्ग होता है ।" यहाँ दुर्ग के अन्दर देवमूर्तियों की प्रचुरता होने के कारण कदाचित् इस स्थान का नाम 'देवगढ़' पड़ा हो।
1. दी एज ऑफ इम्पीरियल कनौज (भारतीय विद्या भवन, जिल्द 1), (वम्बई, 1961 ई.),
पृ. 831 2. दे.-मन्दिर संख्या 12 के अर्धमण्डप के दक्षिण-पूर्वी स्तम्भ पर उत्कीर्ण अभिलेख, तथा पृ. 33,
354-55 पर विस्तृत विवेचन। 3. दे.-मन्दिर संख्या 12 के अर्धमण्डप के दक्षिण-पूर्वी स्तम्भ पर उत्कीर्ण अभिलेख । परि. लो, अभि.
क्र. एक। 4. ऋषियों के नामों पर नगरों के नामकरण की प्रथा प्राचीनकाल से अबतक प्रचलित है; प्राचीनकाल
में ऋषि जाबालि के नाम पर जाबालिपुर (जबलपुर) और आधुनिक काल में आचार्य शान्ति सागर
एवं आचार्य वीर सागर के संयुक्त नाम पर शान्तिवीर नगर, श्रीमहावीरजी, राजस्थान। 5. (अ) अमरसिंह : अमरकोप (वाराणसी. 1957). काण्ड 1. वर्ग । पद्य 7-10। (व) धनं
नाममाला, अमरकीर्ति विरचित भाष्योपेता, पं. शम्भुनाथ त्रिपाठी सम्पादित (काशी, 1950 ई.), श्लो. 56। (स) संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ : चतुर्वेदी द्वारकाप्रसाद शमां तथा तारिणीश झा सम्पादित (इलाहावाद, 1957 ई.). प. 530। (द) नालन्दा विशाल शब्दसागर : नवलजी सम्पादित
(देहली, विक्रमाब्द 2007), पृ. 613। 6. (अ) अमरसिंह : अमरकोप, 2-8.17। (व) धनंजय : नाममाला, श्लो. 1: । (स) संस्कृत शब्दार्थ
कौस्तुभ, पृ. 523 । (द) नालन्दा विशाल शब्दसागर, पृ. 305 /
30 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन
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