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बहत चौड़ी भी प्राप्त होती हैं। उनमें कभी-कभी आजकल की भाँति झालर और घुघरू भी लटकते हुए देखे जा सकते हैं। पैरों में पाजेब और पायल, दोनों पहनी जाती थी।
पायल कभी-कभी बहुत चौड़ी होती थी और उसमें (नूपुर) धुंघरू गुंथे होते थे। पाँवपोश पहनने की भी प्रथा थी।'
कुछ आभूषण, जिनमें नथ और बिछुड़ी आदि उल्लेखनीय हैं, देवगढ़ में कहीं, नहीं दिखे। साध्वियाँ किसी प्रकार का कोई भी आभूषण नहीं पहनती थीं।
7. आमोद-प्रमोद
अनुष्ठान और समारोह
आमोद-प्रमोद को देवगढ़ में पर्याप्त महत्त्व दिया जाता था। वहाँ एतदर्थ अनेक साधन उपलब्ध थे। समय-समय पर आयोजित धार्मिक अनुष्ठान और सामाजिक समारोह मनोरंजन की अच्छी सामग्री जुटा देते थे।
संगीत और नृत्य
गायन, वादन और नृत्य में यहाँ के समाज की विशेष अभिरुचि थी।' शिलापट्टों, तोरणों, द्वारपक्षों और स्तम्भों आदि पर अनेक मण्डलियों के बीसों दृश्य अंकित हुए हैं। उनसे इस तथ्य की पुष्टि होती है कि संगीत कला का उपयोग देवगढ़ में न केवल आमोद-प्रमोद के लिए ही होता था, अपितु भक्ति-प्रदर्शन और हर्षोल्लास के अवसरों पर भी सफल आयोजन किया जाता था। संगीत मण्डलियों में पुरुष और स्त्रियाँ समान रूप से भाग लेते थे। कभी स्त्रियाँ नृत्य करतीं तो पुरुष साथ देते थे
और कभी पुरुष नृत्य करते तो स्त्रियाँ उनका साथ देती थीं। संगीत की लय में खोये हुए स्त्री-पुरुष निश्चित ही दर्शक को मन्त्रमुग्ध बना देते थे। नृत्यकार पैरों में धुंधरू बाँधते थे और हाथों को विभिन्न मुद्राओं में संचालित करते थे।
1. दे.-चित्र सं. 21, 93, 96, 97, 108, 122 आदि। 2. दे.-चित्र सं. 19, 21, 33, 93, 103-105, 122 आदि ।
9-20, 95, 96, 97, 98, 99, 100, 104, 105 आदि। 4. दे.-चित्र सं. 19, 20 आदि। 5. दे.-चित्र सं. 16, 20, 22, 24, 35, 57, 109, 118 तथा जैन चहारदीवारी, विभिन्न मन्दिरों के
प्रवेश-द्वार आदि । मं. सं. 24 की पश्चिमी वहिर्भित्ति में धरणेन्द्र-पद्मावती का एक ऐसा मूर्ति-फलक जड़ा हुआ है, जिसके कि पादपीठ में छह श्राविकाएँ भक्ति विभोर होकर नृत्य कर रही हैं।
248 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन
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