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________________ उस समय कदाचित् परदाप्रथा का अभाव ही हो सकता है । परन्तु उनकी केशसज्जा इतनी सुन्दर और कलापूर्ण होती थी कि ओढ़नी का मस्तक पर न पड़ा रहना ही अधिक सुन्दर दिखता है। कुछ स्त्रियाँ पुरुषों की भाँति अपने सिर पर टोपियाँ लगाये हुए अंकित की गयी हैं । ये टोपियाँ दो प्रकार की प्राप्त होती हैं- एक का आकार तुर्की टोपी के समान है' और दूसरी का वर्तमान सैनिक की टोपी के समान 12 कुछ स्त्रियाँ अपने ललाट पर तिलक भी लगाती थीं । देवी मूर्तियों के मस्तक पर मणिजटित मुकुट दिखाये गये हैं। मुकुट को यदि सूक्ष्मता से विचार किया जाये तो आभूषणों का अंग तो कहेंगे ही, वस्त्र और केशसज्जा का अंग भी कह सकते हैं । देवगढ़ की स्त्रियाँ केशसज्जा में बहुत निपुण थीं । उनके जूड़े अनेक आकर्षक शैलियों में बँधे हुए देखे जा सकते हैं।' वे आजकत्व की भाँति गूँथकर लटकती हुई लम्बी चोटी पसन्द नहीं करती थीं। खुली हुई लम्बी चोटी भी नहीं रखी जाती थी । उसे विभिन्न शैलियों में लपेटकर गूँथा जाता था । कुछ स्त्रियाँ चोटी गूंथने के कार्य में विशेष अभिरुचि दिखाती थीं। उनकी चोटी कभी-कभी इतनी बड़ी ( लम्बी नहीं) होती थी कि उनके द्वारा कृत्रिम चोटियों के प्रयोग किये जाने का सन्देह होता है। चोटी गूंथने के लिए वे दर्पण का प्रयोग करती थीं 16 देवगढ़ की स्त्रियाँ आभूषणों के प्रति उदासीन न थीं, परन्तु खजुराहो आदि की भाँति आसक्त भी नहीं थीं । मस्तक पर आभूषण प्रायः नहीं पहना जाता था । कुछ उत्तरवर्ती मूर्तियों के सीमन्त में मारवाड़ी बोरला' जैसा कोई आभूषण यदा-कदा दिख जाता है। कभी-कभी ललाटिका भी पहनी जाती थीं, उसे दर्पण की सहायता से सँवारा जाता था । मुकुट का प्रचार जन साधारण में नहीं था । उसे या तो देवियाँ ही बाँधती थीं अथवा 'तीर्थंकर की माता'" और साम्राज्ञी, " आदि महत्त्वपूर्ण स्त्रियाँ । यहाँ मुकुटों 1. दे. - चित्र सं. 951 2. देखिए - चित्र सं. 98, 101 102 103 104 105, 108 आदि । 3. दे. - मं. सं. चार के प्रवेश द्वार के बायें पक्ष पर देवी मूर्ति । 4. दे. - चित्र सं. 19-21, 33, 76, 100, 107, 111, 112 आदि । 5. दे. - चित्र सं. 114 115 117, 119, 121 आदि । 6. इस तथ्य की पुष्टि चित्र सं. 116 और 117 से हो सकती है। वहाँ दर्पण का उपयोग ओष्ठ-प्रसाधन (चित्र 117 ) और ललाटिका को सँभालने के हेतु किया गया है (चित्र 116 ) | 7. दे. ---चित्र सं. 20, 99, 100 आदि । 8-9. दे. - चित्र सं. 116 1 10. दे. - चित्र सं. 93 तथा मं. सं. चार और तीस में स्थित मूर्तियाँ । 11. दे. - जैन चहारदीवारी की उत्तरी बहिर्भित्ति में जड़ी हुई साम्राज्ञी मूर्ति । 246 :: देवगढ़ की जैन कला एक सांस्कृतिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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