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________________ रखते थे। एक स्त्री रतिक्रीड़ा के समय अपने प्रेमी की दाढ़ी से खेलती हई अंकित की गयी है। देव तथा सम्भ्रान्तवर्ग के लोग मस्तक पर मुकुट बाँधते थे। ललाट पर तिलक लगाने का प्रचलन था। कानों में कुण्डल, कर्णावितंस, कर्णिका आदि तथा गले में विभिन्न प्रकार के हार पहने जाते थे। केयूर, कटिसूत्र और पायलों का भी प्रचलन था। चूड़ियाँ पहनने का प्रचलन पुरुषों में नहीं था। (ब) स्त्रीवर्ग : यहाँ स्त्रियाँ अधोवस्त्र के रूप में साड़ी पहनती थीं। उसे आजकल की भाँति ऊपर तक लाकर ओढ़ती नहीं थीं, बल्कि एक विशेष ढंग से कमर के नीचे ही लपेटती थीं। देवगढ़ की किसी भी कृति में स्त्रियों को अवगुण्ठन धारण किये अंकित नहीं किया गया है। कंचुकी पहनने की प्रथा थी।' स्तनपट्टिका का प्रयोग प्रायः कम मिला है। उत्तरीय प्रायः सभी स्त्रियाँ रखती थी। उसका उद्देश्य कमर से ऊपर का भाग ढकने का रहा होगा, परन्तु इस उद्देश्य की पूर्ति कदाचित् ही कोई स्त्री करती थी। उत्तरीय को गले या उसके थोड़े नीचे से, पीछे की ओर से निकालकर कुहनियों के ऊपर से सामने लाया जाता था, तब उसके दोनों छोर एक आकर्षक लहरिया बनाते हुए हवा में लहराते रहते थे। उत्तरीय का इस प्रकार का प्रयोग आज भी पंजाब और उसके आसपास के प्रदेश में लड़कियों द्वारा किया जाता है। मस्तक पर, देवगढ़ में ओढ़नी आदि कुछ भी नहीं दिखायी गयी। इसका कारण 1. ऐसे मूर्त्यकनों के लिए दे.-मं. सं. एक का पृष्ठ भाग तथा विभिन्न मानस्तम्भ। मं.सं. 12 के प्रदक्षिणापथ के प्रवेश-द्वार के दायें पक्ष पर भी इस प्रकार की दाढीवाले परुष का अंकन हआ है। धर्मशाला में प्रदर्शित चक्रेश्वरी (चित्र 99) के पादपीठ पर (दायें) दाढ़ी वाला श्रावक विनयावनत 2. दे.-जैन चहारदीवारी में जड़ी हुई मूर्तिमाला। और भी दे.-चित्र सं. 121 । मं. सं. चार के प्रवेश-द्वार पर (दायें) भी एक युवती पुरुष की दाढ़ी सहला रही है। दे.-चित्र सं. 114 । 3. दे.-चित्र सं. 57, 72, 74, 107, 108, 110, 113, 119 आदि। 4. दे.--मं. सं. तीन में स्थित तीर्थकर मूर्ति के पार्श्व में निर्मित इन्द्र के ललाट पर। 5. दे.-चित्र सं. 72, 74, 98, 107, 108, 113, 114, 119, 121, 122 आदि। 6. दे.-चित्र सं. 19-21, 33, 35, 86, 87, 93, 95-97, 101, 102, 104-108, 110-112, 114, 115, 117, 119, 121 आदि। 7. दे.-चित्र सं. 93, 99, 105, 106, 117 आदि। 8. मं. सं. एक के मण्डप में एक मूर्तिफलक पर एक ऐसी श्राविका का अंकन है जो 'स्तनपट्टिका' वाँधे हुए है। उसकी ग्रन्थि पीछे दीख पड़ती है। कुछ पाठशाला दृश्यों में भी ऐसी श्राविकाएँ देखी जा सकती हैं। 9. दे.-चित्र सं. 19-21, 33, 35, 86, 87, 93, 103-106, 108, 117, 119, 121 । सामाजिक जीवन :: 245 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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