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________________ मूर्तियों के समक्ष नृत्य और गीत के कार्यक्रमों का प्रचलन देवगढ़ में प्रचुरता से था। इन कार्यक्रमों में श्रावक और श्राविकाएँ समान रूप से भाग लेती थीं। दानशालाओं का निर्माण होता था, जिसमें श्रावकों के अतिरिक्त पण्डितवर्ग भी भाग लेता था। कुछ श्राविकाएँ नारिकेल आदि सामग्री लेकर पूजन को जाया करती थीं। कुछ श्राविकाएँ पाठशालाओं में जाकर शिक्षा भी ग्रहण करती थीं। 3. वंश और उपजातियाँ उक्त वर्गीकरण के अतिरिक्त समाज विभिन्न वंशों और उपजातियों में भी विभक्त था। सन् 1203 ई. के लगभग देवगढ़ पाली में देपद और खेपद नामक दो भाइयों ने एक महान् जैन यज्ञ कराया था। उसी समय मुहम्मद गोरी की सेना से बचकर भागे हुए कुछ क्षत्रिय वहाँ आ पहुँचे। ये दिल्ली के आसपास रहनेवाले 'रत्नागिरे' क्षत्रिय थे। वे जैनधर्म स्वीकार करके उस यज्ञ में सम्मिलित हो गये। इसी अवसर पर उन्हें 'कठनेरा'5 जैन के नाम से घोषित किया गया। एवं उसी समय उन्हें साढ़े बारह गोत्रों में विभाजित किया गया-(1) सिंघई आरत्या, (2) सिंघई दीवटिया, (3) सेठ पुजेरे, (4) सेठ टीकेत, (5) साह ढिलौआ, (6) भण्डारी, (7) नायक, (8) कोंडर, (9) खारक्या, (10) तेलिया, (11) खड़ेले, (12) रबड़या (12/2) निगोत्या। इनके वंशज आज भी विद्यमान हैं और वे अपने को श्री कुन्दकुन्दाम्नायी, मूलसंघी तथा सरस्वतीगच्छ से सम्बन्धित मानते हैं।" 1. नृत्य और गीत की मण्डलियाँ देवगढ़ में मन्दिरों के प्रवेश-द्वारों, स्तम्भों, तोरणों तथा मूर्तिफलकों आदि पर बहुत बड़ी संख्या में देखी जा सकती हैं। दे.-चित्र सं. 16, 23, 35, 57, 116, 118 आदि। 2. दे.--द्वितीय कोट की उत्तरी दीवार में भीतर की ओर प्राप्त कतिपय अभिलेख, जिनमें दानशालाओं के निर्माण के विवरण के अतिरिक्त उनका वर्णन भी किया गया है। और भी देखिए-दयाराम साहनी : ए.प्रो.रि., परि. 'अ' अभिलेख क्रमांक 125, 126 और 129 । 3. मं. सं. एक के मण्डप में आचार्य परमेष्ठी की मूर्ति के पादपीठ में दे.-चित्र सं. 77 और 79 । 4. दे.-पाठशालाओं के विभिन्न दृश्य। और भी दे.-चि. सं. 77 से 82। 5. इन्हें जैनसंघ में सम्मिलित करते समय यह शर्त रखी गयी थी कि उक्त महायज्ञ के समय उपस्थित समाज को, ये लोग 'काष्ठ' (ईंधन) के विना भोजन तैयार कर पंक्तिभोज दें, उन लोगों ने यह प्रस्ताव स्वीकार किया था और अपने बहुमूल्य वस्त्रों आदि को घी-तेल में भिगोभिगोकर उन्हें जलाकर भोजन तैयार कर उक्त महायज्ञ में आगत समस्त समाज को पंक्तिभोज दिया था। यह एक कठिन कार्य था। अतः उपस्थित समुदाय ने उनके साहस और निष्ठा की भूरि-भूरि प्रशंसा की तथा उनके कार्य के अनुरूप सभी ने उनका नाम 'कठनेरा' निर्धारित किया। दे.-हरिकृष्ण कवि : बृहत्पंचकल्याणक विधान : (बम्बई, 1929 ई.), भूमिका, पृ. 3-7। 6. दे. वही, पृ. 71 236 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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