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संवत् 1181 के एक अभिलेख में अग्रोतक वंश का उल्लेख है, जिससे वर्तमान अग्रवाल समाज अपना सम्बन्ध स्थापित करता है। इसी अभिलेख में गर्ग नामक गोत्र का भी उल्लेख हुआ है। यहीं के, संवत् 1493 के एक अभिलेख में 'अप्टशाख' नामक वंश का उल्लेख मिलता है। यह ‘अष्टशाख' वर्तमान जातियों में प्रचलित 'अठसका' ही है। संवत् 1693 के एक अभिलेख में 'गोलापूर्व' नामक उपजाति का भी उल्लेख मिला है। इन सबसे यह निष्कर्ष निकलता है कि देवगढ़ का समाज विभिन्न वंशों, गोत्रों और उपजातियों का समष्टिगत रूप तो था ही, साथ ही कठनेरा जैसी उपजाति का जन्मस्थान भी था।
3. धर्मपरायणता धर्मपरायणता भारतीय संस्कृति की मूलभूत विशेषता है। पुरुषार्थ चतुष्ट्य में धर्म की गणना प्रथम स्थान पर होती है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, स्वदार-सन्तोष और परिग्रह-परिमाण धर्म के ही विभिन्न रूप हैं। ये रूप व्यक्ति की सामर्थ्य और परिस्थितियों की अनुकूलता-प्रतिकूलता के अनुसार कभी अत्यन्त सूक्ष्म और कभी अत्यन्त विशाल आकार में दीख पड़ते हैं। जहाँ तक देवगढ़ के समाज का प्रश्न है, वहाँ धर्म के प्रायः सभी रूप लघुतम से महत्तम तक आकार में दृष्टिगत होते हैं। सूखे हाथों साधु की वन्दना कर लेनेवाली अबोध श्राविका' से लेकर सतत एक वर्ष तक प्रचण्ड तपश्चर्या करनेवाले साधु तक का जीवन यहाँ अंकित किया गया है। एक ओर पिटता हुआ परस्त्री-लम्पट दिखाया गया है तो दूसरी ओर देवांगनाओं द्वारा रिझाये जाने पर भी हिमालय की भाँति अडिग तपस्वी भी मूर्त्यकित किया गया है।' साधुओं अर्थात् अतिथियों का आहार आदि से सत्कार करनेवाले सद्गृहस्थ तो देवगढ़ में थे ही, साथ ही साधुओं के चरण संवाहन करनेवाले भक्त भी थे।'
1. 2.-- राष्ट्रीय संग्रहालय, देहली में सुरक्षित, 6 फुट 2 इं. x 2 फुट 9 इं. के शिलाफलक पर उत्कीर्ण,
देवगढ़ से प्राप्त अभिलेख का 32वाँ अनुच्छेद ओर भी दे. --परि. दो, अभि. क्र. चार । 2. देवगढ़ की जैन धर्मशाला में सुरक्षित । दे.-परि. 2, अभि. क्र. 5।। 3. मं. सं. 7 की चरणपादुका पर उत्कीर्ण । दे.--परि. 2, अभि. क्र. 61 4. दे. चित्र सं. 23 । मं. सं. 12 के प्रदक्षिणापथ के प्रवेश-द्वार पर (दायें) साधु को खाली हाथ विनय
प्रदर्शित करती हुई एक श्राविका का अंकन है। 5. दे - चित्र सं. 86 से 88 तक। 6. दे.-चित्र सं. 115। 7. दे.-चित्र सं. 161 8. दे.-चित्र सं. 22,231 9. दे.-चित्र सं. 91 तथा 116।
सामाजिक जीवन ::237
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