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________________ साध्वी ने संवत् 1207 में आर्यिका नवासी' ने तथा संवत् 1209 में आर्यिका धर्मश्री' ने, मूर्तियों की प्रतिष्ठा भी करायी थी । श्रावक और श्राविकाएँ- दोनों ही, साध्वियों से उपदेश प्राप्त करते थे । वरिष्ठ साध्वियाँ कनिष्ठ साध्वियों पर कड़ी नजर रखती थीं और अपराध हो जाने पर कनिष्ठ साध्वियाँ घुटनों के बल (उकडूं) बैठकर उनसे क्षमायाचना करती थीं। 1 जैन धर्म के उत्थान में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों का योगदान अधिक रहा । मथुरा आदि से प्राप्त सैकड़ों जैन अभिलेखों से ज्ञात होता है कि धर्म के प्रति स्त्रियों की आस्था पुरुषों से कहीं अधिक थी और धर्मार्थ दान देने में वे सदा पुरुषों से आगे रहती थीं । मथुरा के प्रमुख जैन स्तूप के निर्माण में बहुसंख्यक महिला दानदातारों का हाथ था । देवगढ़ में भी उपर्युक्त प्रवृत्ति परिलक्षित होती है ।" वर्तमान काल में भी धार्मिक अभिरुचि पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में ही अधिक विकसित दिखायी पड़ती है। श्रावक-श्राविकाएँ : श्रावकवर्ग भी कर्तव्यपालन और धर्माचरण में साधुवर्ग से पीछे नहीं रहता था । जो श्रावक साधु अवस्था धारण करने में असमर्थ होते थे वे उत्कृष्ट श्रावक अर्थात् ऐलक' का पद स्वीकार करते थे। अतिथियों का सत्कार करते हुए सपत्नीक श्रावक की तत्परता और श्रद्धा दर्शनीय होती थी । तीर्थंकर की 1. दे. - परि. एक, अभि. क्र. 25 । 2. दे. - परि. एक, अभि. क्र. 23 । 3. मं. सं. चार में जड़ी मूर्तियाँ तथा स्तम्भ सं. 11 में । 4. दे. - मं. सं. 10 में दक्षिणी स्तम्भ (पूर्वी ओर ) । चित्र सं. 92 | 5. (अ) प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी मथुरा से प्राप्त दो नवीन अभिलेख : वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ ( सागर, भारतीय कला में भ. महावीर सन्मति कला का इतिहास, हिन्दी साहित्य, 2476 वी.नि.), पृ. 229-31। (ब) प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी सन्देश (मई, 1961), पृ. 35। (स) प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी जिल्द दो (प्रयाग, 1962 ई.), पृ. 223 1 6. दे. - परि. एक, अभि. क्र. 62, 7, 12, 13, 55, 98, 104, 120 आदि । 7. ऐलक का लक्षण - - (अ) गृहतो मुनिवनमित्या गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य । भैक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधरः ॥ - आचार्य समन्तभद्र : रत्नकरण्ड श्रावकाचार : ( देहली, 1951 ), श्लो. 1471 ( ब ) आचार्य वसुनन्दि : वसुनन्दि श्रावकाचार (काशी, 1952 ई.), भूमिका, पृ. 63 तथा गाथा 311। 8. दे. - ऐलक की प्रतिमा, मं. सं. 15 के मण्डप में (बायें से दायें) अन्तिम मूर्तिफलक । 9. दे. - मं. सं. 12 के गर्भगृह और प्रदक्षिणापथ के प्रवेश-द्वार। और भी दे. - चित्र सं. 22, 23। सामाजिक जीवन : 235 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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