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है। साधुवर्ग पाँचवें परमेष्ठी थे। वे तीसरे और चौथे परमेष्ठियों की विनय और वैयावृत्ति आदि तो करते ही थे, स्वाध्याय और तपश्चर्या आदि में भी संलग्न रहते थे। वे स्थान-स्थान पर भ्रमण करके श्रावक-श्राविकाओं को धर्मोपदेश भी देते थे। उनके उपदेश के अधिकारी मनुष्य ही नहीं, पशु भी होते थे।'
कुछ साधु श्राविकाओं से संवाहन कराने तथा हाथ का उपधान लगाकर आराम से लेटने आदि की 'उत्सूत्र-प्रवृति' भी कर बैठते थे। कुछ साधु क्रोधी भी होते थे, जिनकी मुखाकृति अपने गुरु की उपस्थिति में भी उद्दण्डतापूर्ण और आवेशमय रहती थी। इसी प्रकार वहाँ कुछ तुन्दिल साधु भी रहते थे। परन्तु इन दो-तीन अपवादस्वरूप अनुचित प्रवृत्तियों के विरुद्ध वहाँ कुछ घोर तपस्वी साधु भी रहते थे। भगवान् आदिनाथ के द्वितीय सुपुत्र बाहुबली का भी वहाँ कई स्थानों पर मूढंकन हुआ है, जिन्होंने इतनी कठोर और दीर्घकालीन तपस्या की थी कि निरन्तर हिले-डुले बिना ही खड़े रहने के कारण उनके शरीर पर लताएँ चढ़ गयी थीं और सर्प, छिपकली तथा बिच्छू आदि विषैले जन्तु भी निर्भय होकर रेंगने लगे थे।
साध्वियाँ : साध्वियाँ भी स्वाध्याय और तपश्चर्या में मग्न रहती थीं। वे पाठशालाओं में भी उपस्थित होती थीं। कुछ साध्वियाँ मूर्तियाँ भी बनवाती थीं। संवत् 1095 और उसके आस-पास कभी इन्दुआ नाम की साध्वी ने, संवत् 1135 में लवनासरी' नाम की साध्वी ने और किसी समय गणी नाम की साध्वी ने मूर्तियों का दान किया था। यही नहीं, संवत् 1176 में सोमती नामक साध्वी ने और उसके कुछ समय आस-पास उसकी बहन धनियाँ2 ने, संवत् 1201 में मदन' नाम की
1. मं. सं. 12 के गर्भगृह तथा प्रदक्षिणापथ के प्रवेश-द्वार पर। दे.-चित्र सं. 22-23 । 2. मं. सं. 18 के महामण्डप के प्रवेश-द्वार पर। दे.-चित्र सं. 91 तथा 116। 3. वही। 4. मं. सं. एक के पृष्ठभाग में। दे.-चित्र सं. 77 । 5. वहीं पर। दे.-चित्र सं. 78 और 801 6. दे.-मं. सं. 2, 11 के दूसरे खण्ड का गर्भगृह और जैन धर्मशाला में अवस्थित बाहुवली-मूर्तियाँ
तथा चित्र सं. 86 से 88 तक। 7. दे.-परिशिष्ट एक, अभि. क्र. 11। 8. दे.-परि. एक, अभि. क्र. 301 9. दे.-परि. एक, अभि. क्र. 107 । 10.दे.-परि. एक, अभि. क्र. 321 11.दे.-परि. एक, अभि. क्र. 511 12. दे.-परि. एक, अभि. क्र. 591 13. दे.-परि. एक, अभि.क्र. 52 ।
234 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन
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