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शास्त्र सृजन का अभाव
देवगढ़ के साधु एक अत्यन्त वांछनीय और स्थायी महत्त्व का कार्य करने में बहुत पीछे रहे। यह कार्य था - शास्त्रों की रचना और उनके संग्रह का । सम्भव है कि उन्होंने यह कार्य थोड़ा-बहुत किया हो, परन्तु काल के प्रभाव से वह नष्ट हो गया हो या आततायियों द्वारा नष्ट कर दिया गया हो, पर देवगढ़ में एक भी हस्तलिखित शास्त्र का न पाया जाना यही निष्कर्ष प्रस्तुत करता है, जो हमने निकाला है । कोई कारण नहीं कि जयपुर, जैसलमेर, ईडर, मूडविद्री और कोल्हापुर आदि स्थानों पर सहस्रों ग्रन्थों की रचना और उनका संग्रह हुआ, जिसका अधिकांश हम अब भी केवल भट्टारकों द्वारा ही सुरक्षित पाते हैं, क्या देवगढ़ के भट्टारक यह कार्य नहीं कर सकते थे ? कारण कुछ भी हो या न हो, पर इस दृष्टि से हमारी धार्मिक आस्था देवगढ़ के भट्टारकों पर उस तीव्रता से नहीं टिकती, जिस तीव्रता से जयपुर आदि के भट्टारकों पर टिकती है।
4. श्रावक धर्म
परिष्कृत अभिरुचि
देवगढ़ के श्रावक और श्राविकाएँ एक ओर धार्मिक अनुष्ठानों में गहरी अभिरुचि रखते थे और दूसरी ओर राग-रंग में भी काफी समय बिताते थे । वे संगीत और नृत्य में भी कुशल होते थे । विभिन्न प्रकार के वाद्यों और साज-सामान के साथ a जिनेन्द्र देव की भक्ति को जाते और लय-ताल में खो जाते थे । उनकी ऐसी अनेक मण्डलियाँ देवगढ़ में अंकित हुई हैं।
नवधा-भक्ति
वे साधुओं की सेवा-शुश्रूषा और नवधा भक्ति करते थे। एक श्रावक - युगल किसी साधु को अत्यन्त भक्ति के साथ आहार दे रहा है। श्रावकों के अतिरिक्त कभी-कभी श्राविकाएँ भी बैठे हुए साधुओं के मस्तक पर छत्र धारण किये रहती
1. दे. - चित्र सं. 16, 22, 23, 35, 57, 109, 118 तथा जैन चहारदीवारी, विभिन्न मन्दिरों के प्रवेश द्वार तथा मं.सं. 12 का अर्द्धमण्डप आदि ।
2. दे. - चित्र सं. 22, 23, 77-83, 86-90 आदि ।
3. मं. सं. 12 के प्रदक्षिणापथ और गर्भगृह के प्रवेश द्वारों पर । दे. - चित्र सं. 22-23 ।
4. मं. सं. एक के पीछे जड़ी आचार्य मूर्ति । दे. - चित्र सं. 77 ।
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धार्मिक जीवन :: 223
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