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निर्माण और निर्माण की प्रेरणा
मन्दिरों और मूर्तियों के निर्माण की प्रेरणा निश्चय ही साधुवर्ग द्वारा दी जाती थी, जैसा कि देवगढ़ के अभिलेखीय प्रमाणों से ज्ञात होता है। यहाँ की कुछ साध्वियों ने तो स्वयं ही मूर्तियों का निर्माण कराया था एवं कुछ ने मूर्तियों की प्रतिष्ठा भी करायी थी। 2 मुनिधर्म का विकास प्रदर्शित करते हुए जैसा कि ऊपर विवेचन किया जा चुका है, अन्य स्थानों की भाँति देवगढ़ के साधु भी एक प्रकार के भट्टारक ही थे, जिन्हें लौकिक समृद्धि और सौन्दर्य के प्रति कदाचित् सर्वाधिक आकर्षण था । उन्होंने विशाल और सुसज्जित मन्दिरों, दानशालाओं तथा सहस्रों भावपूर्ण और मोहक मूर्तियों का निर्माण कराने के लिए श्रावकों को प्रेरित किया तथा स्वयं उन निर्मितियों की प्रतिष्ठा की। उनके प्रयत्नों के ही परिणामस्वरूप अनेक शताब्दियों के बाद भी जैन धर्म की प्रभावना तथा जैन कला और स्थापत्य के सुन्दर नमूने हमें उपलब्ध हैं
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तिष्ठ, आहारजले शुद्धे स्त।' (2) उच्चस्थान -- जब साधु उसकी ओर ध्यान दे तब भीतर ले जाकर उच्च स्थान देना, (3) पादप्रक्षालन - किसी पात्र में उनके चरण धोना, ( 4 ) पूजन - अष्टद्रव्य से पूजन, (5) प्रणाम - तीन प्रदक्षिणा दे प्रणासम करना, (6-9) क्रमशः मन, वचन, काय और भोजन की शुद्धि रखना । दे. - बृहत् जैन शब्दार्णव : द्वितीय भाग (सूरत 2460 वीर नि.), पृ. 5151 1. (अ) इन्दुआ नामक आर्यिका ने (मं. सं. एक तथा चार में स्थित) दो तीर्थकर मूर्तियों का निर्माण कराया था । दे. - परिशिष्ट एक, अभिलेख क्र. 11 और 30 (व) आर्यिका गणी ने (मं. सं. चार में स्थित ) तीर्थंकर की कायोत्सर्ग मूर्ति का निर्माण कराया था। दे. - परि. एक, अभि. क्र. 321 (स) आर्यिका लवनासरी ने (मं. सं. 20 में स्थित ) तीर्थंकर की कायोत्सर्ग मूर्ति का निर्माण कराया था । दे. - परि. एक, अभि. क्र. 107।
2. (अ) आर्यिका धर्मश्री ने अन्य पण्डितों के साथ संवत् 1209 में (मं. सं. 3 में स्थित ) कायोत्सर्ग तीर्थंकर मूर्ति की प्रतिष्ठा करायी थी । दे. - परि. एक, अभि. क्र. 22 (ब) आर्यिका नवासी ने आचार्य जयकीर्ति के साथ सं. 1207 में एक प्रतिष्ठा में भाग लिया था। दे. - परि. एक, अभि. क्र. 25 ) ( स ) आर्यिका मदन ने सं. 1201 में (मं. सं. 12 में स्थित) ऋषभनाथ की पद्मा मूर्ति की प्रतिष्ठा करायी थी । दे. - परि. एक, अभि 52 ।
3. ऐसे साधुओं में लोकनन्दी के शिष्य गुणनन्दी (दे. - परि. एक, अभि. 17,109, 114, 116, 119 आदि), कमलदेवाचार्य और उनके शिष्य श्रीदेव (दे. - परि. एक. अभि. 58, 88 ), त्रिभुवनकीर्ति (दे. - परि. एक, अभि. 19), जयकीर्ति (परि. एक, अभि. 25), भावनन्दी (परि. एक, अभि. 33 ), चन्द्रकीर्ति (परि. एक, अभि. 39), यशः कीर्त्याचार्य (परि. एक, अभि. 96), और नागसेनाचार्य (परि. एक, अभि. 90), कनकचन्द्र, लक्ष्मीचन्द्र, हेमचन्द्र (परि. एक, अभि. 6), धर्मचन्द्र, रत्नकीर्ति, प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दी, शुभचन्द्र (परि. एक, अभि. एक), देवेन्द्रकीर्ति (परि. एक, अभि. 55) आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।
222 :: देवगढ़ की जैन कला एक सांस्कृतिक अध्ययन
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